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★★★★ भव्यजनकण्ठाभरणम्
उसीके प्रमाण हो जाता है, अर्थात् यदि छोटा शरीर मिलता है तो सकुच कर उसी शरीरके बराबर हो जाता है और यदि बड़ा शरीर मिलता है तो फैलकर उसीके बराबर हो जाता है । तथा वह स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता है और स्वयंही उनके फलका भोक्ता है । उसका स्वभाव ऊपरको जानेका है। उसके दो भेद हैं- एक संसारी और एक मुक्त । तथा वह उत्पाद, व्यय और धौम्य स्वभाववाला है, अर्थात् उसमें प्रतिसमय पहली पर्यायका नाश होता रहता है, नई पर्याय उत्पन्न होती रहती है और इस उत्पाद विनाशके होते हुए भी वह आत्माका आत्माही बना रहता है। जैसे मिट्टीके लौंदेका विनाश और घड़ेकी उत्पत्ति होनेपर भी मिट्टी कायम रहती है ॥ १६५ ॥
अमूर्तमन्योन्यकृतोपकारमनाद्यनन्तं स्वपरप्रकाशि | सामान्यरूपं च विशेषरूपं समस्त कर्मत्रयसङ्गदूरम् ॥ १६६ ॥
अर्थ- वह आत्मा अमूर्तिक है- उसमें रूप, रस, गन्ध वगैरह नहीं पाये जाते । परस्परमें एक दूसरोंका उपकार करनाही उसका कार्य है, वह अनादि और अनन्त है, अर्थात् न उसका आदि है न अन्त होता है, सदासे है और सदा रहेगा । वह अपनेकोभी जानता है और दूसरे पदार्थों को भी जानता है। उसके दो रूप हैं एक सामान्य और एक विशेष । तथा वह समस्त कर्मोंके संसर्ग से दूर होता है । अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकमसे दूर हैं ॥ १६६ ॥
अस्त्रीत्वपुम्भाव नपुंसकत्वम बालतायौवनवृद्धभावम् । अमर्त्यतिर्यक् सुरनारकत्वमस्तैकताद्वित्व बहुत्वभेदम् ॥ १६७ ॥
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