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भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************** ५७
लोकोंमें स्याद्वादको मुद्रासे चिह्नित समस्त वस्तुओंको ज्यों का त्यों बतलाती है ॥ १६२ ॥
शास्त्रं हितं शास्ति भवाम्बुराशर्यत्रायते चाहतमेव वाक्यम् । यदागमश्चागमयत्यशेष वेदश्च यद्वेदयतीह वेद्यम् ।। १६३ ॥ ___ अर्थ- अतः अर्हन्तदेवका वचनही 'शास्त्र' कहे जानेके योग्य है क्यों कि 'शास्त्र' शब्द 'शास्' और 'त्र' दो धातुओंसे बना है, जिनमें से पहलीका अर्थ उपदेश देना और दूसरीका अर्थ है रक्षा करना और वह हितका उपदेश देता है और संसारसमुद्रसे रक्षा करता है । तथा वही आगम है क्यों कि वह सबका ज्ञान कराता है और वही वेद है क्यों कि जो कुछ जानने योग्य है उसका ज्ञान कराता है ॥ १६३ ॥
तत्रैव सूक्तं पुरुषादितत्त्वं श्रद्धेयमल्पैः सहसाज्ञयैव ॥ बुद्ध्यैव वृद्धस्तु नयानुयोगन्न्यासैः श्रुतैः सम्यगवेत्य भव्यैः ।।१६४॥
__ अर्थ- उसी शास्त्रमें आत्मा आदि तत्त्वोंका सुन्दर कथन है, जो अल्पज्ञानी हैं उन्हें तो उसे जिन भगवानकी आज्ञा समझकर बिना विचारेही उसका श्रद्धान करना चाहिये किन्तु जो ज्ञानवृद्ध हैं उन्हें नय, अनुयोग और निक्षेपकेद्वारा जानकरही. उस कथनका श्रद्धान करना चाहिये। और भव्य जीवोंको शास्त्रोंकेद्वारा भली प्रकार जानकर उसका श्रद्धान करना चाहिये ।। १६४ ॥
अब आत्मतत्त्वका कथन करते हैंतत्रात्मतत्त्वं सहजोपयोगि स्वोपात्तदेहोन्नतिकर्तृभोक्तु । विसर्पसंहारवदूर्ध्वगामि सिद्धं भवस्थं स्थितिजन्मनाशि ॥ १६५॥ __ अर्थ- जैनशास्त्रमें कहा है कि आत्मतत्त्व स्वाभाविक ज्ञान और दर्शनसे युक्त है, कोंके कारण उसे जैसा शरीर मिलता है
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