Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 72
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् ********************kutta ५५ असह्यदुःखावसथे भवेऽस्मिन्ननादिभूते भ्रमता कथञ्चित् । आप्तोऽयमामुक्ति मयास्तु नम्यः स्तुत्यश्च चिन्त्यस्तनुवाङ्मनोभिः।।१५६ अर्थ- असह्य दुःखोंसे भरे हुए इस संसारमें अनादि कालसे भ्रमण करते हुए जिस किसी तरह मुझे इस आप्तकी प्राप्ति हुई है। अतः जबतक मुझे मुक्तिकी प्राप्ति न हो तवतंक मन, वचन और कायसे यही आप्त मेरे नमस्कार करने के योग्य है, यही आप्त मेरी स्तुतिके योग्य है और यही आप्त मेरे ध्यान करने के योग्य है॥ १५६॥ तस्यैव वाक्यं भवति प्रमाणं यथावदर्थप्रतिपादकस्य । प्रमीयते प्राज्ञजनैर्गुणानां वक्तुः सदा गौरवतो हि वाक्यम् ॥१५७।। __ अर्थ- वह आप्त पदार्थका ठीक ठीक कथन करता है । अतः उसीका वचन-प्रमाण है । क्यों कि विद्वज्जन गुणी वक्ताके वचनोंको सदा गौरवसे मापते हैं ॥ १५७ ॥ पृष्टे सति न्याय इकखिलेऽर्थे वक्तुः सभास्थस्य वचः प्रमाणम् । तदीययाथात्म्यविदोऽस्तरागद्वेषस्य रूढस्य च सत्यवाचा ॥ १५८ ॥ ___अर्थ- न्यायकी तरह सभी विषयोंके सम्बन्धमें पूछे जानेपरसभामें स्थित उसी वक्ताका वचन-प्रमाण माना जाता है, जो उस विषयकी असलियतको जानता है, और जिसे किसीसे राग वा द्वेष नहीं है तथा जो सत्य बोलनेमें पक्का होता है ॥ १५८ ॥ जितानृताङ्गाखिलरागरोषमोहादिकत्वाजिननामभाजः । तस्यैव वोचो विजितान्यवाचो भिनत्ति शैलान्शिरसा यथैव ।।१५९॥ १ ल. मोहाहितत्वाजिननामभाजः । २ ल. तस्यैव वाक् तद्विजितान्यवाचो भिनत्ति शैलान्भिदुरं यथैव. For Private And Personal Use Only

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