Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४***attttttttttt****** भव्यजनकण्ठाभरणम् ___ अर्थ- आठो कर्मोंसे मुक्त होकर तथा सम्यग्दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्षमत्त्व, अव्याबाधत्व, अगुरुलघुत्व और अवगाहनत्व इन आठ अपने गुणोंसे युक्त होकर वह मुक्त आत्मा मलिनतासे रहित और किरणोंसे सहित सोने की तरह चमकता हुआ शोभित होता है ॥ १५३ ॥ स्थितः स राजत्तललोकहर्म्यस्याग्रे विभावाद्युदितै रसौधैः । पश्यन्मृतं संसृतिनाटकं स स्वस्थस्तरां चर्वति शर्म सान्द्रम् ।।१५४|| ___ अर्थ- जिसके नीचेका भाग नाना प्रकारके जीवोंसे शोभित है, उस लोकरूपी महलके अग्रभागमें स्थित हुआ वह मुक्तात्मा, विभाव आदि भावोंसे उत्पन्न श्रृंगार आदि रसोंसे भरे हुए इस संसाररूपी नाटकको देखा करता है और आत्मनिष्ठ होकर अनन्तसुखका उपभोग करता है ॥ १५४ ॥ मनस्तमः स्वार्थविभासितेजा मदीयमस्येन्मणिदीपकल्पः । स्थितोऽपि दीपो मरुदन्तराले त्रिलोकचूडामणिरेष सिद्धः ॥१५५॥ अर्थ- तीनों लोकोंके मस्तकका मणिरूप वह सिद्धपरमेष्टी मणिमय दीपकके समान है क्यों कि जैसे मणिदीपक स्वयं अपनाभी प्रकाशन करता है और अन्य पदार्थोंकाभी प्रकाशन करता है वैसेही सिद्धपरमेष्ठी केवलज्ञानके द्वारा अपनेकोभी प्रकाशित करते हैं और अन्य पदार्थोंकोभी प्रकाशित करते हैं। तथा जैसे मणिदीप हवाके बीचमेंभी बराबर प्रज्वलित रहता है वैसेही सिद्धपरमेष्ठी वातवलयमें विराजमान रहकर सदा सबको जानते देखते हैं। अतः मणिदीपके तुल्य वे सिद्धपरमेष्ठी मेरे मनमें स्थित अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करें ॥ १५५॥ For Private And Personal Use Only

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