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५२*************************** भव्यजनकण्ठाभरणम
घन करनेवाले मनुष्योंको घोर दुःख सहना पड़ता है तो समस्त जगत्के स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवालोंका तो कहनाही क्या है ? ॥१४८॥
सतो हितं शास्ति स एव देवः सदाप्यते शासनतत्फलेच्छा । कलस्वनं कर्णसुधारसौघं वमत्तयोर्वाद्यमपेक्षते किम् ॥ १४९॥
अर्थ- जिनेन्द्रदेवही भव्यजीवोंके हितका उपदेश देते हैं, किन्तु उनको शासन करने और उसके फलकी इच्छा नहीं रहती, अर्थात् उनका उपदेश निरीहवृत्तिसे बिना किसी इच्छाके होता है । ठीकही है, कानोंके लिये अमृतरसके प्रवाहके तुल्य मनोहर शब्द करनेवाला वीणादि वाद्य क्या उनकी अपेक्षा करता है ॥ १४९ ॥
श्रीमान् स्वयम्भूर्वृषभो जितात्मा कर्मारिरहन्नजितोऽकलङ्कः । जिनः शिवो विष्णुरजो जितारिरित्यादिसाामितनामधेयः॥१५०॥
अर्थ- उन जिनेन्द्रदेवके असंख्य नाम हैं और वे सब सार्थक हैं । अनन्त ज्ञान आदि रूप अन्तरंगलक्ष्मी और समवसरण आदि रूप बाह्य लक्ष्मीसे युक्त होने के कारण वे श्रीमान् कहे जाते हैं। बिना किसीके उपदेशके स्वयंबुद्ध होकर उन्होंने आत्मकल्याणका पथ अपनाया था। इस लिये उन्हें स्वयंभु कहते हैं । धर्मसे भूषित होनेके कारण उन्हें वृषभ कहते हैं । आत्माको जीत उनेसे वे जितात्मा कहे जाते हैं । कोके वैरी होनेसे उन्हें कर्मारि कहते हैं । सबसे अधिक पूजाके योग्य होनेसे उन्हें ' अर्हन् ' कहते हैं। किसीके द्वारा पराजित न होनेसे उन्हें ' अजित' कहते हैं । दोषोंसे रहित होने के
१ ल. सदाप्रते
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