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५.***************************भव्य
जनकण्टाभरणम
द्रव्येषु सत्स्वप्यखिलस्य जन्तोर्विपर्ययानध्यवसायशङ्काला तन्वन्निरस्यैव तमो. यथावत्सन्दर्शयत्यर्कवदेष तानि ॥१४३।।
___ अर्थ- जैसे सूर्य अन्धकारको दूर करके वर्तमान वस्तुओंका ठीक ठीक प्रकाशन करता है वैसेही जिनेंद्रदेव मौजूदा पदार्थोंमें भी समस्त प्राणियोंको होनेवाले विपरीत, अनध्यवसाय और संशयको दूर करके उन पदार्थोंका जैसाका तैसा ज्ञान कराते हैं ।
भावार्थ- जो ज्ञान कुछका कुछ जानता है उसे विपरीत ज्ञान कहते हैं, जैसे सीपको चांदी और रस्सीको सांप समझ लेना । ' कुछ होगा' इस प्रकारके ज्ञानको अनध्यवसाय कहते हैं और दूरसे अंधेरेमें खड़े हुए किसी पदार्थको देखकर ' यह पुरुष है या ढूंठ ' इस प्रकारके ज्ञानको संशय कहते हैं। ये तीनों मिथ्याज्ञान हैं। क्योंकि सामने वर्तमान वस्तुका ठीक ठीक ज्ञान नहीं कराते ॥१४३
भव्या भवाम्भोनिधिपारगं तं भजन्तु भक्त्या भवदुःखशान्त्यै ॥ ताक्ष्यं यथा तापितसर्वसर्प साभिभीता भुवि संश्रयन्ति ॥ १४४॥
अर्थ-- जैसे लोकमें सर्पसे भयभीत प्राणी समस्त सापोंको त्रास देनेवाले गरुडकी शरणमें जाते हैं, वैसेही भव्य जीवोंको सांसारिक दुःखोंकी शान्तिके लिये, संसाररूपी समुद्रको पार करनेवाले उस जिनेन्द्रदेवकीही भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिये ॥ १४४ ॥
हिमातिभीती इव वहिमेव छायामिवैवातपतप्यमानाः ।। भजन्तु भव्या भवदुःखभीता भक्त्या भवासातरिपुं तमेव ।। १४५।। .. अर्थ- जेसे शीतकी पीड़ासे भीत मनुष्य आगकाही सेवन करते हैं और सूर्यके घामसे पीडित मनुष्य छाया का सेवन करते हैं
१ लं. सार्तिभीता भुवि संसजन्ति २ ल. हिमातिभीता
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