Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 65
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 86 ***** Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ★★★★ भव्यजनकण्ठाभरणम् अर्थ - ज्ञानी पुरुष जिनदेवकोही भक्तिपूर्वक पूजते हैं और मूर्ख मनुष्य शिव वगैरहकीही आराधना करते हैं। ठीकही है, इसी लोकमें पारद सुवर्णकोही ग्रहण करता है तथा पानीका समूह धूलीको ग्रहण करता है || १३५ ॥ अज्ञैः कृतामप्यनलं ग्रहीतुं महां जिनस्यानतिमन्यदेवाः । अन्येऽलमानीतमपीह चौरैरर्ह सुराज्ञो मुकुटं न धर्तुम् ॥ १३६ ॥ अर्थ - यद्यपि अज्ञानी जन अन्य देवोंको नमस्कार करते हैं किन्तु वास्तव में नमस्कारके अधिकारी जिनेन्द्रदेवही हैं अतः अज्ञानी जनोंके द्वारा नमस्कार किये जानेपर भी अन्य देव जिनेन्द्रदेवकी नमस्कृतिको धारण नहीं कर सकते। जैसे राजाके योग्य मुकुटको चोर चुराभी लायें तौभी उसे दूसरे लोग धारण नहीं कर सकते ॥ १३६ ॥ सुधांशुबिम्बे तमसेव शुद्धे सुखावहे श्रीजिनशासनेऽस्मिन् । छन्नेऽपि कालात्परशासनेन सतामुपास्यं हि तदेतदेव ॥ १३७ ॥ अर्थ- जैसे शुद्ध और सुखदायी चन्द्रमाका विम्व अन्धकार से ढक जाता है वैसेही शुद्ध और सुखदायी यह जिनधर्म यद्यपि कलिकालके प्रभावसे अन्य धर्मोके द्वारा ढांक दिया गया है, फिर भी सज्ज - नोको इसीकी आराधना करना चाहिये || १३७ || सिंहासनं यत्र सितातपत्रं गुणाश्च सन्तीह न सन्ति दोषाः । स एव राजा सकलोवरायां लोकेश्वरस्तज्जिन एव तादृक् ॥ १३८ ॥ अर्थ - जिसमें सिंहासन, श्वेत छत्र और गुणोंका आवास है, तथा दोष नहीं हैं, समस्त पृथ्वीमें वही राजा लोकका स्वामी होता है और ऐसे जिनेन्द्रदेवही हैं ॥ १३८ ॥ For Private And Personal Use Only

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