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भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************** ४७
नष्ट होजानेपर जिनेन्द्रदेव स्वयं अपने ज्ञानके द्वारा सूक्ष्म और दूरवर्ती पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको बतलाते हैं ॥ १३१ ॥
आच्छिद्य दोषानपि घातिकर्माण्याढ्यो विभूत्यातिशयैश्च सर्वम् । जानात्ययं पश्यति निश्चिनोति शास्तेत्यनन्तं शमनन्तशक्तिम् ॥१३२ ___ अर्थ- अन्तरंग दोषोंको और बाह्य घातिकोंको नष्ट करके वह जिनेन्द्रदेव बाह्य और अन्तरंग विभूति तथा अतिशयोंसे सम्पन्न होकर सबको जानते हैं, सबको देखते हैं और अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्यको अपनाते हैं ॥ १३२ ॥ इति श्रियोऽस्यातिशया गुणाश्च यत्सन्ति दोषावृतयो न सन्ति ।।
अश्रीगुणोद्घातिशयेषु देवेष्वयं सदोषावरणेष्वगण्यः ॥ १३३ ॥ . ___अर्थ- इस प्रकार जिनेन्द्रदेवमें आत्मिक लक्ष्मी है, गुण हैं
और अतिशय हैं, किन्तु दोष और आवरण नहीं हैं। अतः दोष • और आवरणवाले तथा उत्तम लक्ष्मी, उत्तम गुण और उत्तम अतिशयोंसे रहित देवोंमें उनकी गणना नहीं की जा सकती ॥ १३३ ।। शिवादिकेभ्यो जिन एव मान्यस्त्यक्तोपधिः शीलनिधिश्च तत्स्यात् । सन्त्यक्तसंग समुपात्तशील मान्यं परेभ्यो मनुते जगद्यत् ॥ १३४ ॥
___ अर्थ- जिनदेवने समस्त परिग्रहको छोड दिया है और वे शीलके भण्डार हैं अतः शिव आदि देवताओंसे वही पूज्य हैं। क्यों कि यह जगत् परिग्रहको छोडनेवाले और शीलका पालन करनेवाले व्यक्तिको दूसरोंसे पूज्य मानता है ॥ १३४ ॥
भजन्त्यभिज्ञा जिनमेव भक्त्या भवादिकानेव जडा भजन्ति । सुवर्णमेवाददते हि सूता धूलीरिहैवाददते जलौघाः ॥ १३५ ॥
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