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भव्यजनकण्ठाभरणम् **************************४५
अर्थ- इस प्रकार जिस आप्तका समर्थन प्रमाणके द्वारा होता है, और त्रिलोकों के स्वामी इन्द्र चक्रवर्ती वगैरह जिसकी सेवा करते है वही आप्त तीनों कालों और तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ है तथा वह जिनेन्द्र भगवानही है ॥ १२४ ॥
तस्यैव यत्सम्भवतीह तथ्यः सुरागमोऽभ्रे गमनं जनेज्या । जयस्वनो रत्नसभा गणास्ते भामण्डलं दुन्दुभिदिव्यनादौ ॥ १२५ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः पष्टिश्च चत्वारि च चामराणि । जगत्रयकाधिपतित्वचिहं, सितातपत्रत्रयसिंहपीठम् ॥ १२६ ॥ गुणोद्भवा निर्मलता च नित्यं निःस्वेदतानेकसुलक्षणत्वम् । विलोचनासेचनकं सुरूपं सुगन्धिता निन्दितकैणनाभिः ॥ १२७ ।। जगत्रयीमप्यतथा विधातुं पटीयसी काचन दिव्यशक्तिः । निमेषदूरोज्ज्वलफुल्लनीलनीरेजलज्जाकरनेत्रयुग्मम् ॥ १२८ ॥
___ अर्थ- उन्हींके समवसरणमें सचमुचके देवोंका आगमन होता है, वेही आकाशमें गमन करते हैं, उनकी सब लोग पूजा करते हैं, जय जय नाद करते हैं, उनकी रत्नमयी सभा होती है, अनेक गण होते हैं, सिरके चारों ओर भामण्डल होता है, दुन्दुभि बजती है, दिव्यध्वनि खिरती है, अशोकवृक्ष होता है, देव पुष्पोंकी वर्षा करते हैं, देवता चौसठ चमर ढोरते हैं, वे सिंहासनके ऊपर विराजते हैं, उनके सिरपर तीन श्वेत छत्र रहते हैं जो इस बातको सूचित करते हैं कि भगवान् तीनों लोकोंके स्वामी हैं; उनके गुणोंके कारण उनमें निर्मलता प्रकट होती है, उन्हें कभीभी पसेव नहीं आता तथा अन्यभी अनेक सुलक्षण उनमें पाये जाते हैं, उनका रूप इतना सुन्दर होता है कि उसे देखकर आंखें कभी तृप्त नहीं होतीं, उनके
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