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भव्यजनकण्ठाभरणम् ★★★
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तरह ही बनावटी है । वैसेही एक जगह बनावटी देवोंका आगमन देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह अन्यत्र भी बनावटी है ॥ ११९ ॥
गतिस्वभावोऽद्भुतमच्छतादि सुरेषु रामिष्वत एषु नैश्यम् । गुणोद्भवं यत्र तदस्ति पुंसि दुरापमस्मिन्नृभवेऽयमीशः ॥ १२० ॥ अर्थ - शायद कोई कहे कि शरीरकी स्वच्छता वगैरह तो देवोंमें भी पाई जाती है किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि रागी देवोंमें जो स्वच्छता वगैरह है वह देवगतिमें जन्म लेने के कारण है, मनुष्यभवमें यह बात नहीं है, मनुष्यभवमें जन्म से परम औदारिक शरीर वगैरह का होना कठिन है अतः जिस पुरुषमें उसके गुणों के कारण शारीरिक स्वच्छता वगैरह पाई जाती है वही आप्त है, अन्य नहीं ॥ १२०॥
सन्मार्गसन्दर्शिवचोऽस्ति नाम्ना भवाम्बुधिं तारयतीति तीर्थम् । तस्यैव कर्ता भुवि तीर्थकर्ता न चेतरे तद्विपरीतवाचः ॥ १२१ ॥
अर्थ- सन्मार्गको बतलानेवाले वचनों को तीर्थ कहते हैं क्यों कि वह संसाररूपी समुद्रसे पार उतारते हैं । उन वचनोंके कर्ताको अर्थात् जो वैसा उपदेश देता है उसको तीर्थङ्कर कहते हैं । अतः जिनके वचन संसारसमुद्र में डुबानेवाले हैं वे तीर्थङ्कर नहीं कहे जा सकते ॥ १२१ ॥
अशेषदोषावृतिविप्रमुक्तः कोप्यस्ति हेमेव मलप्रमुक्तम् । हानिस्तयोरप्यतिशायनेन प्रवर्तते यन्मलयोर्यथैव ।। १२२ ।। अर्थ - शायद कहा जाये कि ऐसा कोई पुरुष नहीं है जिसके
१ ल. गतिस्वभावोद्भव.
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