Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 58
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् ★★★★ *** ४१ गाय पूज्य नहीं हो सकती । इसी तरह कुछ लोग बैलको और पीप भगिनी और लके पेडको पूज्य मानते हैं । किन्तु बैल अपनी माता कन्या के साथ रमण करता है । अतः वह पूज्य नहीं हो सकता । तथा पीपल पूज्य है तो अच्छे २ फल देनेवाला आमका पेड़ पूज्य क्यों नहीं है ? ॥ ११३ ॥ मान्यान्यथेमान्यपि ये वदन्ति तेऽप्यन्यवरक्ष्मावकरापगासु । क्षिपन्ति किं केशपुरीषमूत्रोच्छिष्टास्रपूयास्ध्यजिनामिषाणि ॥ ११४ अर्थ- जो लोग पृथ्वी, नदी वगैरहकोभी पूज्य मानते हैं, वे दूसरे लोगोंकी तरह नदी वगैरह में बाल, टट्टी, पेशाब, जूठम, रुधिर, पीव हड्डी, चमडा और मांस वगैरह क्यों फेंकते हैं ? ॥ ११४ ॥ उल्लङ्घ्य यान्त्यम्बुधिदेहलीवारोहन्ति शैलद्रुमवाहनानि । दहन्ति रत्नान्यशनान्यदन्ति पिबन्ति दुग्धोदककाञ्जिकानि ।। ११५ अर्थ- जो समुद्र देहली वगैरहको पूज्य मानते हैं वे समुद्र और देहलीको लांघकर जाते हैं । पहाड, वृक्ष और सवारीपर चढते हैं, रत्नोंको जलाते हैं, भोजन खाते हैं, और दूध, पानी तथा कांजी पीते हैं (१) ॥ ११५ ॥ इति प्रसंगादपृथक् तदाताभासादिरूपं परमाज्यरुच्यम् । आप्तादिरूपं प्रकृतं प्रवक्ष्याम्यथाच्छादिकपनकाप्तैः ॥ ११६ ॥ अर्थ - इस प्रकार प्रसंगवश जानकारोंके लिये रुचिकर तथा सच्चे देवादिकोंके समान दीखने से अपृथक् अभिन्न दीखनेवाले आप्ता - भास वगैरह का स्वरूप कहा । अब मैं पञ्च परमेष्ठी के कथन को लिये हुए प्रकृत आप्त वगैरहका स्वरूप कहता हूं ॥ ११६ ॥ १ ल. दपृथुक् २ ल. परमज्ञरुच्यम् For Private And Personal Use Only

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