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भव्यजनकण्ठाभरणम् ************************** २५
दुर्वर्तनारातिवरप्रदानात्स्वापायमात्रस्य भविष्यतो न । वीक्ष्यागतिप्रत्ययवेदकत्वान्येषां पुनः किं निखिलार्थवृत्तेः ॥ ६४ ॥
__ अर्थ- जिसका व्यवहार दुष्ट है उस अपने शत्रुकोभी वर देनेसे आगामीमें होनेवाले अपने अनिष्टको भी न जान सकने वाले शिव वगैरह देवता न देखते थे, न उसके आगमनको जानते थे तथा उसके कारणोंकोभी नही जानते थे। फिर सर्वज्ञताकी बात तो दूरही रही ॥ ६॥ इतीद्धरागादिसमस्तदोषाः स्वापायमात्रेक्षकतादिशून्याः । एतेऽपि सत्त्वान्यदि तारयेयुः शिलाः शिलाः संसृतितीवसिन्धौ ।।६५) ____ अर्थ- इस प्रकार जिनमें राग आदि समस्त दोष भरे हुए हैं और जो अपने अनिष्टको भी नहीं देखते हैं और नहीं जान सकते वे भी यदि जीवोंको संसाररूपी महासमुद्रसे तार सकते हैं तो पत्थर भी पत्थर को तिरा सकता है ।। ६५॥ प्रासादहमाण्डकसेवकादीन्प्रेक्ष्य श्रिये यः यतीश्वरादीन् । स राजवेषान्स तदीयचिहान् न सम्पदे नैष भजेनटांश्च ॥ ६६ ॥ ___ अर्थ- जो इनके महलके सुवर्णकलश, सेवक वगैरह को देखकर विभूतिकी प्राप्तिके लिये इन ईश्वर वगैरहकी सेवा करता है वह राजवेष धारण करनेवाले तथा इन आप्ताभासोंके हरिहरादिकोंके गदादि चिह्न धारण करनेवाले उन नटोंकी संपत्तिके लिये उपासना क्यों नहीं करते हैं ? अर्थात् ये आप्ताभास नटोंके समान हैं ॥६६॥
अप्याश्रिता आप्तधिया शिवाय शिवादयस्ते ददते श्रितेभ्यः । नीलोत्पलानामिव माल्यमत्या नीलोरंगा निःसमदुःखमेव ॥ ६७ ॥
१ ल. सिन्धोः
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