Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ *************************** भव्यजनकण्ठाभरणम ____ अर्थ- 'ये सच्चे देव हैं ' इस बुद्धिसे सुखके लिये आराधनाकरने परभी वे शिवादि यदि अपने आश्रितोंको कुछ देते हैं तो नील कमलोंकी माला समझकर नीले सोको अपनानेके समान वह तीव्र दुःखदायक ही होता है ॥ ६७ ।। अथाप्रमाणैरयथार्थवादिदोषाचितं झोदलवासहिष्णु । असार्वमेतै रचितं वचोऽपि स्यादप्रमाणं सुपरीक्षकाणाम् ।। ६८ ॥ अर्थ- तथा इन कुदेवोंके द्वारा झूठेप्रमाणोंके आधार पर जो शास्त्र रचे गये हैं, वे असत्य बोलनेवाले व्यक्तियोंके दोषोंसे भरे हुए हैं, उनसे किसीका भी हित नहीं हो सकता और वे जरासे भी तर्क वितर्क को सहन नहीं कर सकते, अत: परीक्षाप्रधानियोंके लिये वे अप्रमाण हैं ॥ ६८ ॥ तत्सर्वथैकान्तमनेन तत्त्वाभासं प्रणीतं सकलं च तत्वम् । भवेदनेकान्तमिदं प्रमाणादेकान्तमप्यर्पिततो नयाद्यत् ॥ ६९ ॥ ___ अर्थ- उसमें सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यातत्त्वका कथन है । किन्तु प्रमाणकी दृष्टि से समस्त तत्त्व अनेकान्तस्वरूप है और नयकी दृष्टि से एकान्तस्वरूप है। भावार्थ- जैनोंके सिवा अन्य सब मत एकान्तवादी हैं; क्यों कि वे वस्तुको एकही दृष्टिसे देखते हैं। किन्तु जैनदर्शन अनेकांतवादी है, वह वस्तुको विभिन्न दृष्टिकोणोंसे देखता है। सम्पूर्ण वस्तुको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं और वस्तुके एक अंशको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं। जब प्रमाणके द्वारा हम किसी वस्तुको जानते हैं तो अनेक धर्मात्मक ही प्रतीत होती For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104