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**** भव्यजनकण्ठाभरणम्
भ
____ अर्थ- जैसे अन्धे मनुष्योंके द्वारा ले जाये गये अन्धे मनुष्य मार्गमें भटकते फिरते हैं वैसेही उक्त साधुओंके द्वारा भ्रमसे बतलाये गये मार्गों में जो अज्ञानी गृहस्थ भटकते फिरते हैं और जिन्हें सुष्टु रीतिसे देखे गये मार्गका पता तक नहीं है, क्या वे गृहस्थ धर्मात्मा हो सकते हैं ? ।। ७२ ॥ इत्युज्ज्वलद्दोषगणैकगेहमस्पृष्टमेतत्तदणीयसापि । गुणेन नाप्तादिकषट्कमज्ञस्त्यजेदिव श्वाजिनखण्डपुञ्जम् ॥ ७३ ।।
___ अर्थ- इस प्रकार जो प्रकटरूपसे दोषसमूहके घर हैं और जिनमें गुणका लेश भी नहीं है तथा जो आप्तादिक षट्करूप नहीं हैं अर्थात् सच्चे देव, गुरु, शास्त्र तथा सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप नहीं है परंतु इनसे उलटे हैं अर्थात् कुदेव, कुगुरु तथा कुशास्त्ररूप हैं और मिथ्यात्व, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप हैं उनको अज्ञ नहीं छोडता है जैसे कुत्ता चमडेके टुकडोंके ढेरको नहीं छोड देता है। सिताम्बराः सिद्धिपथच्युतास्ते जिनोक्तिषु द्वापरशल्यविद्धाः। निरञ्जनानामशनं यदेते निर्वाणमिच्छन्ति नितम्बिनीनाम् ।। ७४॥ ___ अर्थ- जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी मोक्षमार्गसे भ्रष्ट है, जिन भगवानके कथनोंमें संशयरूपी शल्यके द्वारा उसका अन्तःकरण छिद। हुआ है अर्थात् जिन भगवानके वचनोंमें उसे सन्देह है। क्यों कि इस सम्प्रदायके अनुयायी केवलीको कवलाहारी और स्त्रियोंको मुक्ति मानते हैं ।। ७४ ॥
ते यापनीसङ्घजुषो जनाश्च सिद्धान्तभागेन सिताम्बराभाः । तेऽमी चतुर्धापि च तैः समायन्त्येकान्तकृत्याश्रितकाष्ठसङ्घाः ॥७५५
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