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भव्यजनकण्ठाभरणम् *
है । अतः प्रमाणकी दृष्टिमें वस्तु अनेकांत स्वरूप ही ठहरती है । और जब हम नयके द्वारा वस्तुको जानते हैं तो हमें उसके एक धर्म ही प्रतीति होती है। अतः नयदृष्टिसे ही वस्तु एकांतस्वरूप 1
है । किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वस्तुमें केवल एक ही धर्म है, अन्य धर्म नहीं है, प्रयोजन न होनेसे वस्तुमें अनेक धर्मोके रहते हुए भी उन सबकी वित्रक्षा नहीं की जाती । किन्तु ज्ञाताको । जिस धर्मकी विवक्षा होती है उसी धर्मकी मुख्यतासे वह वस्तुको ग्रहण करता है । अतः सर्वथा एकांतरूप नहीं है अतः एकांतवाद तत्त्वाभास है और अनेकांतवाद ही सच्चा तत्त्व है ॥ ६९ ॥
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तान्यप्रशस्तानि तदाश्रयाणि श्रद्धानबोधाचरणान्यधर्मः | संसारमार्ग भवन्ति धर्मों यत्प्रत्यनीकानि च मोक्षमार्गः ॥ ७० ॥
अर्थ- उन एकान्तवादी - शास्त्रों में जिन मिथ्या श्रद्धान, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका कथन है, वह सब अधर्म हैं और संसार के कारण हैं । उनके विपरीत सच्चा श्रद्धान, सच्चा ज्ञान और सच्चा चारित्र धर्म है और मोक्षका मार्ग है ॥ ७० ॥
तान्याचरन्तः सपरिग्रहा ये सारम्भहिंसाः सतनूजदाराः । अदन्त्यभोज्यानि पिवन्त्यपेयान्यमी किमया यतयो भवेयुः ॥ ७१ ॥
अर्थ - उन मिथ्या श्रद्धान वगैरहका आचरण करनेवाले जो परिग्रही और आरम्भ तथा हिंसामें फंसे साधु हैं, जो स्त्रीपुत्रों के साथ निवास करते हैं, वे न खाने योग्य पदार्थोंको खाते हैं और न पीने योग्य वस्तुओंको पीते हैं, ऐसे साधु पूज्य कैसे हो सकते हैं ? ॥ ७१ ॥ अन्धा इवान्धैरबुधैरमीभिर्भ्रान्त्योपदिष्टेष्वबुधा भ्रमन्ति । मार्गेषु ये नाप्त सुदृष्टिमार्गा गृहाश्रमस्थाः किमु धार्मिकास्ते ॥ ७२ ॥
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