Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 52
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************** ३५ तो नष्ट कर दिया, किन्तु वह गौतम ऋषिके द्वारा दिये जानेवाले शापको पहलेसे नहीं जान सका। भावार्थ- हिन्दू धर्ममें इन्द्रकी बड़ी प्रतिष्ठा है । एक बार यह इन्द्र गौतमऋषिकी पत्नी अहिल्यापर आसक्त होगया और ऋषिकी अनुपस्थितिमें ऋषिका रूप बनाकर अहिल्याके साथ रमण करता रहा ।जब गौतम लौटे तो रहस्य खुला। उन्होंने इन्द्रको शाप दिया कि चूंकि तुमने योनिमें आसक्त होकर यह कुकर्म किया है, इस लिये तुम्हारे सारे शरीरमें योनियां बन जायेंगी। पीछे इन्द्रके क्षमा-प्रार्थना करनेपर ऋषिने अपने शापमें इतना संशोधन कर दिया वे योनियां आंखके रूपमें बन जायेंगी। तबसे इन्द्र सहस्राक्ष-हजार आंखवाला होगया ॥ ९६ ॥ आधारमप्याश्रितमप्यशेष दहत्यरातिश्रितपाणिरग्निः। हन्तान्तको हन्ति जगन्त्यशान्तिः स राक्षसो भक्षयति ह्यभक्ष्यम् ।९७ गृह्णाति पाशं किमपि प्रचेताः स मर्दयत्यमिसखः समस्तम् । सख्युर्धनेशोऽप्यहरन्न भिक्षा सर्वेऽपि तस्मादधमा दिशापोः ॥ ९८ ___ अर्थ- अग्नि अपने आधारकोभी जला देती है और जो उसका आश्रय लेता है उसेभी जलाकर भस्म कर देती है। इस अग्निके हाथ वीरभद्रने तोड डाले । और यमराज समस्त जगतको मार डालते हैं। यह राक्षस जो न खाने योग्य है उसेभी खा डालता है। वरुण हाथमें नागपाशको लिये रहता है। वायु सबको नष्ट भ्रष्ट कर डालता है और कुबेर अपने मित्रको-महादेवको भिक्षा मांगनेसे नहीं रोक सका। कुबेर धनी होनेपरभी अपने मित्रको-महादेवको समृद्ध नहीं बना १ ल. च्छित. २ ल. दिगीशाः For Private And Personal Use Only

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