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भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************** २९
त्यक्ताखिलज्ञोदितमुख्यकालद्रव्यास्तिता द्राविडसङ्घिनो ये। निःसंयमा ये च निरस्तपिच्छा निष्कुण्डिका ये च निरस्तशौचाः ॥
... अर्थ- और जो यापनीय संघके अनुयायी हैं उनके सिद्धान्त भी श्वेताम्बरोंके समान हैं । तथा अन्य जो ये चार प्रकारके जैनसंघ हैं ये भी उन्हींके समान हैं। उनमें एक तो काष्ठासंघ है जो एकान्तरूपी हसुंएको अपनाये हुए हैं। दूसरे द्रविड संघ है, इस संघवाले सर्वज्ञके द्वारा कहे गये मुख्य कालद्रव्यके अस्तित्वको नहीं मानते । तीसरा नि:पिच्छ संघ है, इस संघके अनुयायी साधु पीछी नहीं रखते. अतः वे संयम नहीं पालते । चौथा निष्कुण्डिका संघ है इस संघवाले साधु शौचके लिये कमण्डलु नहीं रखते । अतः वे शौच-पवित्रतासे दूर हैं ।। ७५-७६ ॥ जिनागमस्येति विरोधिवाचः सिताम्बराद्या जिनमार्गबाह्याः। वाक्यं पदं वाक्षरमार्हतं यद्बाह्यास्ततः श्रद्दधतोऽपि मार्गात् ॥ ७७॥
अर्थ- इस प्रकार जिनागमके विरुद्ध कथन करनेवाले श्वेताम्बर वगैरह जिनमार्गसे बाहर हैं । क्यों कि अर्हन्त भगवानके द्वारा कहे हुए वाक्य, पद अथवा अक्षरको जो नहीं मानता, वह श्रद्धान करते हुए भी मार्गभ्रष्ट हैं ॥ ७७ ॥
अस्मादमून्श्वेतपटादिकाप्तानातागमादीन्प्रतिमालयांश्च । अस्यन्तु शैवाधिकृतानिवार्हदाकवश्या अनिशं त्रिधापि ॥ ७८ ।।
अर्थ- अतः जो अर्हन्त भगवानकी आज्ञाको ही सर्वोपरि मानते हैं उन्हें शैवोंके देव, शास्त्र और गुरुओंकी तरह ही श्वेताम्बर, वगैरहके देवों, शास्त्रों और मन्दिरोंको मन वचन कर्मसे कभी भी नहीं मानना चाहिये ॥ ७८ ॥
१ ल. निरस्तपिञ्छाः । २ ल, स्सतोऽश्रद्दधतोऽपि ३ ल. शैवादि
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