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३२ ************************** भव्यजनकण्ठाभरणम्
स्पृष्ट कथञ्चित्क्षतजे च मांसे मद्ये च देवार्चनमाचरन्तः । निमज्ज्य भक्त्या निपुणाः कथं तान्निन्द्यान्यमी तान्यपि भोजयन्ति ।। ____ अर्थ- देवोंकी पूजन करते समय यदि पूजक जराभी रुधिर, मांस या शराबसे छू जाते हैं तो स्नान करते हैं। तब चतुर मनुष्य भक्तिभावसे उन देवोंको घृणाके योग्य मांसादिक कैसे खिलाते
द्विजातिषूद्भूय मखैरमीषु सुरार्थमन्यै रचितेष्वथैत्य । अदन्ति मांसं यदि तर्हि मूलादत्रैव ते तद्भुवि भक्षयन्तु ॥८७॥
अर्थ- देवताओंके लिये दूसरोंके द्वारा किये गये यज्ञोंमें पितर ब्राह्मण होकर आते हैं और वे यदि मांस भक्षण करते हैं, तो मूलरूपसेही आकर वे मांसादिक भक्षण करें ॥ ८७ ॥
सर्वेऽपि विप्राः पितृलोकगाश्च स्मृता वृथा कर्मयु, च तेषाम् ।। पुरा विशुद्धाः पुनरर्चनीयास्ते किं भवन्त्याइतमद्यमांसाः ॥८८|| .
___ अर्थ- समस्त विनों और पितृलोकवासियोंका स्मरण करना व्यर्थ है तथा उनका धर्म-कर्मभी व्यर्थ है; क्यों कि पहले विशुद्ध
और फिर पूजनीय होते हुएभी वे मद्य और मांसका आदर कैसे करने लगते हैं ? ।। ८८॥ पिष्टादितो जातमपीह भोज्यादतत्समं मद्यमनन्तजन्तु । मदप्रदं वाशुचिधामपाति मान्यावमानाघभरायशोदम् ॥८९।।
अर्थ- यद्यपि मद्य [ शराब ] पिठी आदिसे बनता है किन्तु पिठी [ मिले हुए चावल वगैरह ] आदिसे बने हुए खाद्य पदार्थोंसे बिलकुल भिन्न होता है, उसमें अनन्त जीव रहते हैं, उसके पीनेसे नशा होता है, वह अपवित्र स्थानमें गिरानेवाला है, मान्य पुरुषोंका अपमान करनेवाला है और अपयशका दाता है ॥ ८९ ॥
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