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भव्यजनकण्ठाभरणम्
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अर्थ - तथा गधोंको कामसे पीडित देखकर बुद्धदेव तपके प्रभावसे सुंदर योनिवाली गधी बन गये और उनके साथ रागपूर्वक रमण किया । तबसे वह भगवान कहे जाने लगे । भग-योनि से युक्त होनेसे बुद्धको भगवान् नाम प्राप्त हुआ || ५७ ||
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अकारणद्वेष्ययमेक एव तथागतः साकमशेषसत्त्वैः ।
न चेतथोपादिशदेष किं तान्नरा नि (न्नि) हत्यैव यथा नयेयुः ॥ ५८ ॥ अर्थ - एक वह बुद्ध ही समस्त प्राणियोंसे बिना कारणके द्वेष करने वाला है, यदि ऐसा न होता तो वह उन मनुष्योंको ऐसा उपदेश क्यों देता जिससे वे उन्हें मारकर लाते हैं ।
भावार्थ- स्वयं मरे हुए अथवा दूसरोंसे मारे गये प्राणियोंका मांस खाने में दोष नहीं है ऐसा उपदेश बुद्धने लोगों को दिया । इससे उसका प्राणियों के साथ निष्कारण द्वेष था ऐसा सिद्ध होता है ॥ ५८ ॥
तथागतः सर्वजनेऽप्यमुष्मिन्वृथाधमो द्वेषेभरं व्यधत्त ।
न चेत्किमेन नरकान्यात्याः पलाशनीकृत्य निजोपदेशात् ॥ ५९ ॥
अर्थ - इस अधम बुद्धने व्यर्थही इन सब प्राणियोंके विषयमें द्वेषका भार उठाया । यदि ऐसा न होता तो अपने उपदेशसे सबको मांसभक्षी बनाकर नरकमें क्यों ले जाता ? ॥ ५९ ॥
नात्मास्ति जन्मास्ति पुनर्न कर्ता कर्मास्ति साफल्य (?) तदस्ति बन्धः बद्धो न याता न शिवस्य यानमस्तीति मोहात्स विरुद्धमाख्यत् ॥ ६०
अर्थ - न आत्मा है, न जन्म है, न कर्ता और कर्म हैं, न बन्धकाही कुछ फल है, न कोई बन्धनेवाला है, न कोई मोक्षको १ ल. नरा निहत्यैव २ ल. वृथाधमो द्वेषभरं ३ ल. नयत्याः ४ ल. साफल्यवदस्ति बद्धः ।
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