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भव्यजन कण्ठाभरणम् *
छिपाकर रक्खा । पार्वतीको यह बात सह्य नहीं हुई । तब उसने गणेश आदिसे कहकर गंगाको वहांसे हटाने का षडयंत्र रचा और उसके फलस्वरूप गंगा शिवजीकी जटासे निकलकर स्वर्गलोक और मर्त्यलोकमें अवतरित हुई ॥ १७॥
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प्रयाति रागात्प्रमथेट् परस्त्रीः प्राश्नाति मांसं प्रपिबत्यपेयम् । धन्तेऽस्थिमालाऽजिनशावरक्षास्तनोति भिक्षाटनताण्डवानि || १८ ||
अर्थ - रागके वशीभूत होकर शिव परस्त्रीके पास जाता है, मांस खाता है, न पीने योग्य वस्तुओंको पीता है, गलेमें मुण्डमाला पहनता है, गजासुरका चर्म परिधान करता है, शरीरमें श्मशान के मुर्दोंकी राख मलता है, भिक्षा मांगता है और ताण्डव नृत्य करता है ॥ शम्भुर्ददौ तुम्बरुनारदाभ्यां गीताय रागाद्गृहमात्मकर्णम् ।
पार्थेन सार्धं विततान युद्धं शक्तीय दूतोऽजनि वारवध्वाः ॥ १९ ॥
अर्थ वह संगीत सुननेका इतना प्रेमी है कि नारद और तुम्बरुको उसने अपने कान दे दिये थे । अर्जुनके साथ उसने युद्ध किया और अपने एक भक्त के लिए वेश्याका दूत बना ।
भावार्थ - शिवपुराण में लिखा है कि अर्जुन शिवकी आराधना करने के लिए वनमें तपस्या कर रहे थे । दुर्योधनने एक दैत्यको शूकरका रूप धारण कराके अर्जुन के मारने के लिए भेजा । अर्जुनकी रक्षाके लिए शिवजीने भीलका वेष धारण करके शूकरपर बाण छोड़ा, उसी समय अर्जुननेभी बाण चलाया। दोनों बाण एक साथ शूकरके लगे और वह मर गया। अब अर्जुन और भीलवेशधारी शंकर में झगड़ा होने लगा। दोनों कहते थे कि मेरे बाणसे शूकर मरा है। इसपर
१ ल. भक्ताय.
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