Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ *************** *******भव्यजनकण्ठाभरणम निश्चयसे हम लोगोंकेही समान हैं ॥१४॥ इत्युक्तिमाकर्ण्य शिवादयोऽपि दोषैर्विमुक्ता निचिता गुणैस्तैः । ये पक्षपातादिति वर्णयन्ति समुच्यते तान्प्रति तत्स्वरूपम् ॥१५॥ ___अर्थ - उक्त कथन को सुनकर जो पक्षपातवश ऐसा कहते हैं कि, शिवजी वगैरह देवता भी दोषोंसे रहित हैं और गुणोंसे पूर्ण हैं। उनके लिये उन देवताओंका स्वरूप कहा जाता है ॥१५॥ वित्तं सुदत्यै वितरत्यशेष 'विदोऽप्यतः कैश्यमथाङ्गुलिं वा । विरूपद्दष्टिस्तु विशालदृष्टयै विरुद्धरागाद्विततार देहम् ॥१६॥ ____अर्थ - कोई धूर्त ( व्यभिचारी पुरुष ) अपनी प्रिया को सब धन देता है अथवा केशोंका आभूषण वा अंगूठी देता है। परंतु जिनका नेत्र कुरूप है ऐसे शिवजीने जिसकी आँखें विशाल-बडी हैं ऐसी पार्वतीको लोक-विलक्षण-प्रीतिसे अपना देह ( आधा देह ) दे डाला अर्थात् वे अर्धनारीश्वर बन गये। पतिर्न सल्लापमपि प्रयुङ्क्ते पल्या सहैकान्तपदं विहाय । परं पुनः किं परिपुष्टैरागो भागीरथीममतनुर्भवोऽभूत् ॥१७॥ - अर्थ - पति एकान्त स्थानको छोडकर अन्यत्र अपनी पत्नी के साथ बातचीत भी नहीं करता। किन्तु आश्चर्य है कि शिव तीव्र राग के वश होकर गंगामें मग्न हो गये। ___भावार्थ - ब्रह्मपुराणमें लिखा है कि जिस समय शिवजीकी प्रिय पत्नी पार्वती हुई उसी समय गंगा भी उन्हें प्रिय हुई। शिवजीके रसिक और. स्त्रैण होनेसे गंगा उन्हें विशेष प्रिय होगई और वह सदा उसीके ध्यानमें रहने लगे। उसे उन्होनें अपनी जटाओंमें १ ल. विटोऽप्यतः २ ल, परिपुष्टरागात्. . For Private And Personal Use Only

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