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भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************** १७
अर्थ- हाय ! क्या उस विष्णुनै रोषमें आकर पाण्डवोंके द्वारा अपनेही बन्धु कौरवोंका वध नहीं कराया | और धूर्ततासे दिनमेंही सन्ध्या करके अर्जुनके द्वारा सिन्धुराज जयद्रथका वध नहीं कराया ?
भावार्थ- महाभारतके समय जब कौरवों और पाण्डवोंका युद्ध हो रहा था तो कौरवपक्षके साथ महारथियोंने मिलकर चक्रव्यूहमें फंसे अर्जुनपुत्र अभिमन्युका वध किया था। उस समय व्यूहके द्वारका रक्षक सिन्धुराज जयद्रथ था। तब अर्जुनने वह प्रतिज्ञा की कि यदि कल शामतक जयद्रथको न मार सका तो जीवितही अग्निमें प्रवेश करूंगा । श्रीकृष्ण अर्जुनके सारथि थे । वह जानते थे कि इस प्रतिज्ञा की खबर पातेही जयद्रथ छिप जायेगा और शाम होनेतक बाहर नहीं निकलेगा । अतः उन्होंने अपने मित्र अर्जुनको बचानेके लिये योगमायाके द्वारा सूर्यपर आवरण डाल दिया, जिससे दिनमेंही सायंकाल हो गया। अर्जुनकी प्रतिज्ञा पूरी करनेका काल बीता जानकर जयद्रथ अर्जुनको चिढाने आया। तत्कालही सूर्यका आवरण हटाया और अर्जुनने जयद्रथको मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की ॥ ४४ ॥ निजाननेनोदरमेत्य विश्वं निःसारयन्तं निखिलं विरिश्चिम् । ज्ञातुं स मोहान शशाक विष्णुानेन हीनः पशुभिः समानः ॥४५॥ ___अर्थ- अपनेही मुखसे उदरमें प्रवेश करके समस्त विश्वको निकालनेवाले ब्रह्माको वह विष्णु मोहवश जानभी न सका । ठीकही है, ज्ञानसे हीन मनुष्य पशुओंके समान है।
.. भावार्थ- समुद्रमें मग्न हुई पृथ्वीको ब्रह्मा इधर उधर देखने लगे तब अलसीके पेडकी शाखापर अपना कमण्डलु रखकर बैठे हुए अगस्त्य
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