Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ********************* **** भव्यजनकण्ठाभरणम् समेत्य रागात्पुरुषोत्तमोऽपि स स्नानकाले समुपात्तवस्त्रः । अलं निपीड्यात्मनि रागभारमापाद्य गोपीरमणः समासीत् ॥ ४०॥ ____ अर्थ- विष्णुको पुरुषोत्तम--पुरुषोंमें उत्तम कहते हैं। किन्तु पुरुषोत्तमने भी गोपिकाओंके स्नान करते समय जाकर और रागवश उनके वस्त्र उठाकर उन्हें बहुत पीडा पहुंचाई तथा अपनेमें रागके भारको उत्पन्न करके गोपिकाओंसे रमण किया ।। ४० ॥ सदा वनालीषु सरोवरेषु सौधेषु दोलास्वपि बल्लवीभिः । तनोति लीलाःस हरिः सरागः शंख च वेणु च धमत्यमन्दम् ॥४१॥ अर्थ- तथा वह रागी विष्णु वनोंमें, सरोवरोंमें, महलोंमें और झूलाओंपर गोपिकाओंके साथ सदा लीला किया करता था । और बडे जोरसे बांसुरी तथा शंख बजाया करता था ।। ४१ ॥ प्रियोक्तिपीयूषरसैः प्रणामैः प्रियप्रदानैः प्रणयप्ररुष्टाः । प्रियाः प्रसन्नाः प्रविधाय रागात्प्रकाममाश्लिष्य हरिः प्रभुङ्क्ते ॥४२॥ अर्थ - प्रणयकोपसे रुष्ट हुई प्रियाओंको प्रिय-वचनरूपी अमृतरससे, नमस्कारसे और प्यारी वस्तुओंके दानसे प्रसन्न करके वह विष्णु रागवश गाढ़ आलिंगन करके उन्हें भोगता था ।। ४२ ॥ सुरारिवक्षस्थलवनशङ्कुर्मुरारिराच्छिन्नजरादिसन्धः । जघान रोषैः शिशुपालकंसौ मल्लोरगेन्द्रौ मधुकैटभौ च ।। ४३ ॥ ___अर्थ-- दैत्योंके वक्षःस्थलको विदारण करनेवाले और जरासन्धको मारनेवाले. उस विष्णुने क्रुद्ध होकर शिशुपाल, कंस, मल्ल, नाग, मधु और कैटभका वध किया ।। ४३ ॥ आः कौरवान्पाण्डुसुतैरशेषानमारयत्किं न रुषात्मबन्धून् । सम्पाद्य शान्येन दिवापि सायं स सैन्धवं चाथ धनञ्जयेन ॥ ४४॥ For Private And Personal Use Only

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