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भव्यजनकण्ठाभरणम् *******
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चन्द्रमाका रूप धारण करके देवोंके बीचमें बैठकर अमृत पीने लगा। तब चन्द्र और सूर्यने संकेतसे यह बात विष्णुको सूचित कर दी। विष्णुने तत्काल राहुका मस्तक काट डाला ॥ ४६॥
जातेऽ रिजाते ज्वरदाहाः सस्वेदशोकारतिखेदचिन्ताः । हरेरभूवन्नपि भीतिपूर्वा हते पुनर्विस्मयगर्वनिद्राः ॥ ४७ ॥
___ अर्थ- शत्रुसमूहके जन्म लेनेपर विष्णुको भी भयके साथ ज्वर, दाह, मूर्छा, पसेव, शोक, अरति, खेद और चिन्ता सताती थी। और जब वह उन्हें मार देते थे तो उनको गर्व, आश्चर्य और निद्रा घेर लेती थी ॥४७॥ स्थितं जगत्तजठरे समस्तं स्थितो वटः कुत्र पुनर्जगत्याम् । स कस्य पर्णान्तरशेत विष्णुः सन्तः प्रसन्ना इति तर्कयन्तु ॥ ४८ ॥ ___ अर्थ- सज्जनगण प्रसन्नमनसे विचार करें कि जब यह समस्त जगत् विष्णुके उदरमें स्थित है तो जगतमें वटवृक्ष कहांपर स्थित है और विष्णु किसके पत्तोंके बीचमें सोता है? ॥
भावार्थ- वैदिकमतमें विष्णुविषयक जो वर्णन है वह युक्तियुक्त नहीं है । तथा इस श्लोकका अभिप्राय ४५ वे श्लोकमें आया है और उसीके भावार्थमें पृथ्वीका बहना आदिका उल्लेख किया है। ४८ ॥
सर्व जगद्विष्णुमयं वदन्तस्तन्वन्ति किं ताशि तत्र रागैः । विच्छेदभेदज्वलनादनानि विण्मूत्रणोच्छिष्टविसर्जनानि ॥४९॥ ____ अर्थ- जो इस समस्त जगत्को विष्णुमय कहते हैं वे उस विष्णुमय जगतमें रागके वश होकर छेदना, भेदना, जलाना, खाना, और मल, मूत्र तथा जूठन का त्याग क्यों करते हैं ।। ४९ ॥
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