Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10***************************भळ्य जनकण्टाभर अलं कलावैभवरूपवर्यमपि स्वभर्तारमपास्य लक्ष्मीः । अन्यत्र रज्यत्यधमेषु नूनमपात्ररागः सहजोऽङ्गनानाम् ॥ ५० ॥ ____ अर्थ- अधिक क्या कहें, कला, ऐश्वर्य और रूपसे श्रेष्ठ भी अपने पति विष्णुको छोड़कर लक्ष्मी अन्य नीच जनोंमें अनुराग करती है । ठीक ही है स्त्रियोंका अपात्रमें अनुराग होना स्वाभाविक ही है ॥ ५० ॥ शिवोत्तमाङ्गेऽपि पितामहस्य जिह्वाञ्चलेऽपि समुदारचिह्नम् । अध्यात्मतातोरसि शम्बरारिरस्थापयद्यत्तदभूदनगः ॥ ५१ ।। अर्थ- शिवजीके मस्तकपर, ब्रह्माकी जीभके अग्र भागमें और अपने पिता विष्णुके वक्षःस्थलपर कामदेवने जो अपना विशाल चिह स्थापित किया उससे वह अनंग [ शरीररहित ] हो गया। भावार्थ - यद्यपि शिवजीने कामदेवको भस्मकर दिया किन्तु उसने अपनी छाप सब पर लगाही दी। देखो, शिवके मस्तकमें गंगा विराजमान है, ब्रह्माने अपनी पुत्री सरस्वतीको भार्या बनाकर अपने जिह्वाग्रमें रखा, विष्णुके वक्षःस्थलमें लक्ष्मी रहती है, ये सब कामदेवके ही तो चिह्न है, काम न होता तो क्यों शिवजी गंगाको मस्तकपर धारण करते, और विष्णु क्यों लक्ष्मीको चिपटाये फिरते । मदनसे रुष्ट होकर महादेवने अपने तृतीय नेत्रसे उसको जला दिया जिससे वह अनङ्ग-शरीररहित हुआ ॥५१॥ स स्यान्नृसिंहोऽपि सतामसेव्यः संसाध्य देशं समयादिकं च । विदार्य विद्वेषिणमन्त्रमालाविभूषितात्मीयविशालवक्षाः ।। ५२ ॥ mmmwwwwwwwwwwwwwwwww. wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. १ ल. स्वमुदारचिह्नम् For Private And Personal Use Only

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