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****************भव्य
लनक
ऋषिने ब्रह्माको कहा कि मेरे कमण्डलुमें आपकी पृथ्वी है । तब उसकी टोटीसे ब्रह्मा अंदर जाकर देखने लगे तो वहां वटवृक्षके पत्रपर विष्णु पेट फुलाकर सोये हुए दीख पडे । ब्रह्माने "मेरी पृथ्वीका रक्षण आपने किया यह अच्छा हुआ" ऐसा कहा और विष्णुके मुखसे उदरमें प्रवेश कर वहां अपनी पृथ्वी देख कर वह आनंदित हुआ तथा विष्णुके नाभिपंकजसे निकलते समय उसके बालाग्रसे अटक गया तब उसेही उसने कमल बनाया और उसमें ब्रह्माने निवास किया ॥४५॥ विबुद्ध्य शत्रून्विकृते निहन्तुमधादविद्विष्णुरथावतारान् ।
सुधोपयोगे सुरराजिभाजौ रवीन्दुतोऽबोधि च राहुकेतू ॥ ४६ ॥ ___अर्थ- उपद्रवोंके द्वारा शत्रुओंको जानकर उन्हें मारनेके लिये विष्णुने अनेक अवतार धारण किये। अमृतपान करते समय देवता
ओंकी पंक्तिमें छिपकर बैठे हुए राहु और केतुको विष्णुने सूर्य और चन्द्रमासे जाना।
भावार्थ- एकबार दैत्योंसे परास्त होकर देवगण विष्णुकी शरणमें गये। विष्णुने प्रसन्न होकर कहा-हे देवगण ! मन्दराचलको मथानी और वासुकिनागको रस्सी बनाकर दैत्य और दानवोंके साथ तुम समुद्रका मन्थन करो। उससे जो अमृत निकलेगा उसे पीकर तुम अमर हो जाओगे । मैं ऐसी युक्ति करूंगा जिससे तुम्हारे वैरी दैत्योंको अमृत न मिल सकेगा। यह सुनकर देव और दानवोंने समुद्रका मन्थन किया। उसमेंसे अमृतका कलश लिये हुए धन्वन्तरि प्रकट हुए । दैत्योंने उनके हाथसे वह अमृतकलश छीन लिया। तब विष्णुने मोहनीका रूप धारण करके अपनी मायासे दैत्योंको मोहित कर दिया और उनसे अमृत कलश लेकर जब वे देवोंको पिलाने लगे तो राहुभी
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