Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ ★★: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ★★★ भव्यजनकण्ठाभरणम् अर्थ- कोई मनुष्य आप्त है; क्यों कि संसार में वाच्यके विना वाचक नहीं पाया जाता । अर्थात् जितने अखण्ड पद हैं उन पदोंका वाच्यभी अवश्य पाया जाता है। जैसे कोई कहे कि ( आकाश में कमल ' है । तो आकाश में यद्यपि कमल नहीं है परन्तु तालाब में तो कमल है | १० || स्वद्रव्य कालक्षितिभावतोऽस्ति, नास्त्यन्यतः सर्वमिति प्रसिद्धम् । यथा घटः स्याद्भवनेऽस्ति नास्ति, न चेदिदं तेन भृतं च शून्यम् ॥ ११ ॥ अर्थ - प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावसे है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावसे नहीं है । जैसे घट है भी और नहीं भी । यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो उसका अभाव हो जायेगा। भावार्थ न कोई वस्तु केवल सत् ही है और न कोई वस्तु केवल असत् ही है । यदि प्रत्येक वस्तुको केवल सत्स्वरूप ही माना जायेगा तो सब वस्तुओंके सर्वथा सत्स्वरूप होने से उन वस्तुओंके बीच में जो अन्तर पाया जाता है उसका लोप हो जायगा । और उसका लोप हो जानेसे सब वस्तुएँ सब रूप हो जायेंगी । उदाहरण के लिये घट भी वस्तु है और पट भी वस्तु है । किन्तु जब हम किसीसे घट लाने को कहते हैं तो वह घट ही लाता है, पट नहीं लाता । और जब पट लाने को कहते हैं तो वह पट ही लाता है, घट नहीं लाता। इससे साबित है कि घट घट ही है, पट नहीं है, और पट पट ही है घट नहीं है । अतः दोनोंका अस्तित्व For Private And Personal Use Only

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