Book Title: Bhavyajan Kanthabharanam
Author(s): Arhaddas, Kailaschandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 20
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनकण्ठाभरणम् *************************** ३ श्रीगौत्माद्या जिनयोगिनो ये वीराङ्गजान्ता विमलात्मवृत्ताः। तदीयनामाक्षररत्नमाला मदीयवाण्या मणिकण्ठिका स्यात् ॥ ७ ॥ ____ अर्थ - महावीर भगवान्के तीर्थमें होनेवाले श्रीगौतम गणधर आदि, तथा अन्तमें होनेवाले वीराङ्गज जो जैन योगी हैं, जिनकी आत्मपरिणति अर्थात् चारित्र अत्यन्त निर्मल है, उनके नामाक्षररूपी रत्नोंकी माला मेरी वाणीके कण्ठको भूषित करे ॥७॥ अथाशरीरानुपमाम्बुजाक्षीमण्याशु वश्यां यदलं विधातुम् । शस्तं सुवर्णाभिनवार्थरत्नस्तद्भव्यकण्ठाभरणं तनिष्ये ॥ ८ ॥ ___ अर्थ - इसके अनन्तर, जो अशरीर और अनुपम कमलके समान जिसके नेत्र हैं ऐसी सरस्वतीको भी शीघ्र वश करनेमें समर्थ है तथा जो सुवर्ण-अच्छे अच्छे अक्षर और नवीन अर्थरूपी रत्नोंसे शोभित है, उस भव्यकण्ठाभरण - भव्य जीवोंके कण्ठके लिये भूषण रूप- प्रन्थकी रचना करता हूं ॥८॥ सर्वोऽप्यदुःखं सुखमिच्छतीह तत्कर्मनाशात्स च सञ्चरित्रात् । - सज्ज्ञानतस्तत्सुदृशस्तदाताद्यास्थैव सा मे तदमुष्य वाच्याः॥ ९॥ अर्थ - इस लोक में सब जीव दुःखरहित सुखको चाहते हैं। और दुःखरहित सुख कोंके नाशसे प्राप्त होता है। कर्मोंका नाश सम्यक्रचारित्रसे होता है। वह सम्यक्चारित्र सम्यग्ज्ञानसे होता है। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनसे होता है । सम्यग्दर्शन आप्तसे होता है और सम्यक्चारित्रसे होता है। तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति सम्यग्दर्शनसे होती है। श्रद्धा करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं । अतः उनका स्वरूप कहता हूं ॥९॥ कश्चित्युमानाप्तगिरोऽस्ति वाच्यो वाच्यं विना यद्भवि वाचकं न । सवाच्यमभ्रेऽम्बुरुहं च तत्स्यात्तत्रासदप्यस्ति सरस्यधो यत् ॥१०॥ For Private And Personal Use Only

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