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भव्यजनकण्ठाभरणम् **
अपनी अपनी मर्यादामें ही सीमित है, उसके बाहर नहीं । अतः प्रत्येक वस्तु अपनी मर्यादा में है, उसके बाहर नहीं । यदि वस्तुएँ इस मर्यादा का उल्लंघन कर जाये तो फिर सभी वस्तुएँ सब रूप हो जायेंगी और इसतरह बड़ी गड़बड़ फैल जायेगी । अतः प्रत्येक वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा सत् और पररूपकी अपेक्षा असत् है ॥ ११ ॥ किं चैप नास्तीत्यखिलेऽपि देशे काले च बुद्ध्यैव यदि त्वमात्थ । अयं त्वमेवाखिलविन्न बुद्ध्वास्यवित्त्वमस्त्येव समस्तवित् सः ॥ १२
अर्थ अतः कोई पुरुष आप्त अवश्य है । शायद आप कहें कि किसी भी देशमें और किसीभी कालमें कोई पुरुष आप्त नहीं हुआ, न है, और न होगा। तो आप यदि सब देशों और सब कालोंको जानकर ऐसा कहते हैं तो आपही सर्वज्ञ आप्त ठहरते हैं । और यदि बिना जानेही कहते हैं तो आपका कथन प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। अतः सबको जाननेवाला कोई आप्तपुरुष अवश्य है ॥ १२
तदाप्तरत्नं सकलार्थसिद्धेर्निदानभूतं नितरां दुरापम् ।
लोके तदाभाससहस्रपूर्ण सम्यक् परीक्ष्यैव भजन्तु सन्तः || १३|| अर्थ - वह आप्तरूपी रत्न समस्त अर्थोंकी सिद्धिका मूलकारण है किन्तु उसकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है । क्यों कि यह संसार हजारों बनावटी आप्तोंसे भरा पड़ा है । अतः सज्जन पुरुष आप्तकी परीक्षा करकेही उसको अपनावें ॥ १३ ॥
रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः सर्वज्ञताद्युद्धगुणास्तु सन्ति । आप्तः स एवास्त्यपरे न सर्वेऽप्यमी समा यध्रुवमस्मदाद्यैः ॥ १४ अर्थ – जिसको रागादि दोष नहीं है और सर्वज्ञता आदि श्रेष्ठ गुण पाये जाते हैं वही आप्त है, बाकी सब आप्त नहीं हैं। ये तो
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