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भव्यजनकण्ठाभरणम*************************** ११
शिव उसे नहीं जान सका, और उसीके पास आकर कातरबुद्धि उसेही उसने उसका उपाय पूछा ।। २५ ।। प्रियावियोगेऽयमगापिनाकी प्रकम्पधर्मारुचिभीतिखेदान् । स शोकचिन्ताऽज्वरदाहमूर्छास्तत्सङ्गमे विस्मयगर्वनिद्राः॥ २६॥
__ अर्थ- जब शिवकी प्रिया पार्वतीका उससे वियोग होगया तो वह कांप उठा और अरुचि, भय, खेद, शोक, चिन्ता, ज्वर, दाह
और मूर्छाने उसे घेर लिया। और जब उसका उससे मिलन होगया तो विस्मय, गर्व और निद्राने उसे घेर लिया ।। २६ ॥ निरस्य लजां निखिलाङ्गभूषां नीतिं च भीतिं च नितान्तशक्तिम् । निशान्तमीशाङ्गमुमाकलय्य निन्द्यं किमेनं नितरां तनोति ॥ २७ ॥
. अर्थ- लज्जाको, समस्त अंगके भूषणोंको, नीतिको और भयको दूरकर; महादेवके अंगको-लिंगको सामर्थ्यशाली जानकर; निशान्तप्रभातकालमें उसके साथ क्रीडा कर पार्वती उसे क्यों अतिशय निन्द्य करती है ? ॥ २७॥
सा जाह्नवी शङ्करधर्मपत्नी सक्ता चिरं शन्तनुना विहृत्य । समर्प्य भीष्मादिसुतांश्च तस्मै ततः पतिं तं किमिता न साध्वी ॥२८॥ __अर्थ- शंकरकी धर्मपत्नी वह गंगा चिरकालतक राजा शान्तनुमें आसक्त रही । और उसके साथ विहार करके तथा उसे भीष्म आदि अनेक पुत्र प्रदान करके पुनः अपने उस पति शिवके पास वह साध्वी क्या नहीं लौट आई ? ॥ २८ ॥ विभिन्नकुक्षिं च विभमदन्तं विनायकः स्वं विनुतं विधातुम् । अशक्नुवानोऽपि वरानभीष्टानापादयत्यगतमाश्रितेभ्यः॥ २९ ॥
अर्थ- अपने फटे हुए पेट और टूटे हुए दांतको ठीक करनेमें असमर्थ होते हुएभी गणेशजी अपने आश्रित भक्तोंको इच्छित वर देते
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