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************************ भव्यजनकण्ठाभरणम
कराते हैं, तथा अपने ( आचार्य के ) छत्तीस गुणों से युक्त होते हुए भी सदा सिद्ध परमेष्ठीके सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंको प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी मेरे हृदयमें निवास करें ॥३॥
तेऽध्यापकाः स्युर्दधते नितान्तं ये ब्रह्मचर्यव्रतपालिनोऽपि । दयां च चित्तेषु सरस्वती च, मुखेषु देहेषु तपःश्रियं च ॥ ४॥ ____अर्थ - जो ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करते हुए भी अपने चित्तमें दयाको, मुखमें सरस्वतीको और शरीरमें तपरूपी लक्ष्मीको धारण करते हैं वे उपाध्याय परमेष्ठी जयवन्त रहे ॥४॥
ते साधवो मे ददतु स्ववृत्तिं दयालवोऽपि व्रतदिव्यशक्षैः । अनङ्गराज समरे निहत्य कुर्वन्त्यनङ्गोरुपदं स्वकीयम् ॥ ५ ॥ ____ अर्थ - जो दयालु होते हुए भी युद्धमें व्रतरूपी दिव्य शास्त्रोंके द्वारा कामदेवको मारकर, अपने विशाल अशरीरी पद ( मोक्ष ) को प्राप्त करते हैं वे साधु परमेष्ठी मुझे अपनी वृत्ति ( भ्रामरीवृत्ति ) प्रदान करें ॥५॥
जिनागमक्षीरनिधिगंभीरो विलोडितश्चेद्विबुधैर्विधानात् । ददाति रत्नत्रयमुज्ज्वलाङ्ग तदा स तेभ्योऽप्यमृतं दुरापम् ॥ ६ ॥ ___ अर्थ -- जैन आगम-रूपी क्षीरसमुद्र बड़ा गहरा है । यदि पण्डितजन विधिपूर्वक उसका मंथन करें तो वह सम्यग्दर्शन, सम्य. रज्ञान और सम्यक्चारित्र-रूप निर्मल रत्नत्रयको देता है और उस रत्नत्रयसे भी अत्यन्त कष्टसे प्राप्त करने योग्य अमृत [ निर्वाण ] पद प्रदान करता है ||६||
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