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प्रथमः १]
भाषाटीकासमेतम् । यावनी भाषा प्रचलित होगई संस्कृतका ह्रास होता गया ऐसे कारगोंसे ज्योतिषसंबंधी चमत्कारी फलादेश भी व्यर्थताको प्राप्त होकर यावनीभाषासे दलित होगया. इसके उद्धारार्थ इस ग्रन्थकी भूमिकामें ग्रंथकर्ता पंडित जीवनाथ कहते हैं कि, मेरे कोमल एवं निर्मल शब्दरूपी अमृतपुञ्जसे जो यह भारकुतूहल ज्योतिष फलादेशरूपी धारा निकलती है इसमें उक्त फलादेश ( यवनोंसे मलिन होरहा) स्नान करे जिससे निर्मल होकर पुनः अपने उसी पदको प्राप्त हो तथा संसार भी उसकी उन्नतिसे हर्षित हो ॥३॥
____ अथ द्वादशभावसंज्ञा। तनुकोशसहोदरबन्धुसुतारिपुकामविनाशशुभा विबुधैः ॥ पितृभंतत आप्तिरपाय इमे क्रमतः कथिता मिहिरप्रमुखैः ॥ ४॥ लनादिकमसे १२ भावोंके नाम । तनु (१) प्रकारांतरसे लन, मूर्ति, अंग, उदय, वपु, कल्प, आद्य । कोश (२) प्र० स्वं, कुटुंब, धन। सहोदर (३) प्र० सहज, भ्रात, दुश्चिक्य, विक्रम । बंधु (४) प्र० अंबा, पाताल, मित्र, तुर्य, हिबुक, गृह, सुहृत, वाहन, सुख, अंबु, जल । सुत (५) प्र० तनय, बुद्धि, विद्या, आत्मज, औरस, तनय, मंत्र । रिपु (६)प्र० देष्य, वैरि, क्षत, रोग, मातुल। काम (७)प्र० यामित्र, अस्त, मदन, स्मर, मद, धून । विनाश (८) प्र. रंध, आयु, छिद्र, याम्य, निधन, लय, मृत्यु, संग्राम । शुभ (९) प्र° गुरु, मार्ग, भाग्य, धर्म । पितृ (१०) प्र० राज्य, कर्म, मान, आकाश । आति (११) प्र. लाभ, भव। अपाय (१२)प्र० व्यय, रिफ्फ, नाश । और त्रिकोण ९।५।। त्रित्रिकोण ९।केंद्र १।४।७।१०। पणफर २।५।८1११॥ आपोक्किम ३।६।९।१२। येभी संज्ञा हैं॥४॥
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