Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal

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Page 20
________________ उदार नीति का सैद्धान्तिक आधार मिलती है, और उससे हमारा तात्कालिक कार्य भी चल जाता है। किन्तु यदि हम उसी आंशिक तथ्य को परिपूर्ण सत्य मान लें, तो यह हमारी भूल होगी। नाना कालों में, नाना देशों में, नाना मनुष्यों में वस्तुओं को नाना प्रकार से देखा, समझा व वर्णन किया जाता है। अतएव हमें उन सब कथनों व वर्णनों का ठीक-ठीक दृष्टिकोण समझकर, उन्हें अपने ज्ञान में यथास्थान समाविष्ट करना आवश्यक है । यदि हम ऐसा नहीं कर पाते, तो पद पद पर हमें विरोध दिखाई देता है। किन्तु यदि हम भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों को समझकर उनको सामंजस्य रूप से स्थापित कर सकें, तो हमें उस विशाल सत्य के दर्शन होने लगते हैं जो इस जगत् की वास्तविकता है इसी उद्देश्य से जैन आचार्यों ने देश और काल, तथा द्रव्य और भाव के अनुसार भी वस्तु-वैचित्य का विचार करने पर जोर दिया है। इसीलिए एक जैनाचार्य ने समस्त एकान्तरूप मिथ्या दृष्टियों के समन्वय से सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति मानी है। जैनधर्म में जो अहिंसा पर जोर दिया गया है, वह भी उक्त तत्व-चिन्तन का ही परिणाम है । संसार में एक नहीं, अनेक, अनन्त प्राणी हैं, और उनमें से प्रत्येक में जीवात्मा विद्यमान है । ये आत्माएं अपने अपने कर्मबन्ध के बल से जीवन की नाना दशाओं, नाना योनियों, नाना प्रकार के शरीरों तथा नाना ज्ञानात्मक अवस्थाओं में दिखाई देती हैं । किन्तु उन सभी में ज्ञानात्मक विकास के द्वारा परमात्मपद प्राप्त करने की योग्यता है । इस प्रकार शक्तिरूप से सभी जीवात्मा समान हैं । अतएव उनमें परस्पर सम्मान सद्भाव और सहयोग का व्यवहार होना चाहिये । यही जैनधर्म की जनतंत्रात्मकता है। यदि आज की जनतंत्रात्मक विचारधारा से उसे पृथग् निर्दिष्ट करना चाहें, तो उसे प्राणितन्त्रात्मक कहना उचित होगा; क्योंकि जनतंत्रात्मक जो दृष्टिकोण मनुष्य समाज तक सीमित है, उसे और अधिक विस्तृत व विशाल बनाकर जैनधर्म प्राणिमात्र को उसकी सदस्यता का पात्र स्वीकार करता है। इस वस्तु-विचार से यह स्वभावतः ही फलित होता है कि समस्त प्राणियों में परस्पर अपनी व पराई दोनों की रक्षा की भावना होनी चाहिये। जब सभी को एक उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचना है, और वे एक ही पथ के पथिक हैं, तब उनमें परस्पर साहाय्य की भावना होनी ही चाहिये । इस विवेक का मनुष्य पर सबसे अधिक भार है, क्योंकि मनुष्य में अन्य सब प्राणियों की अपेक्षा अधिक बुद्धि और ज्ञान का विकास हुआ है। यदि एक के पास मोटरकार है, और दूसरा पैदल चल रहा है, तो होना तो यह चाहिये कि मोटरवाला पैदल चलने वाले को भी अपनी गाड़ी में बिठा ले । किन्तु यदि किसी कारणवश यह सम्भव न हो, तो यह तो कदापि होना ही न चाहिये कि मोटरवाला अपने उन्माद में उस पैदल चलने वाले को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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