Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन धर्म का उद्गम और विकास निर्मूल सिद्ध हो जायगा, क्योंकि उक्त सभी बातें किसी व्यावहारिक सुविधा मात्र के विचार से नहीं लाई गई हैं, किन्तु वे जैनधर्म के आधारभूत दार्शनिक व सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि से स्वभावतः ही उत्पन्न हुई हैं। इस बात को स्पष्टतः समझने के लिये जैनदर्शन पर यहां एक विहंगम दृष्टि डाल लेना अनुचित न होगा।
वेदान्त दर्शन में केवल एक चिदात्मक तत्व ही स्वीकार किया गया है, जिसे ब्रह्म कहा है और शेष दृश्यमान जगत के पदार्थों को असत् व मायाजाल रूप से बतलाया गया है । एक अन्य दर्शन में केवल भौतिक तत्वों की ही सत्ता स्वीकार की गई है, और उन्हीं से मेल-जोल से चैतन्य गुण की उत्पत्ती मानी गई है। इस मत को चार्वाक् दर्शन कहा गया है। जनदर्शन जीव और अजीव रूप से दोनों तत्वों को स्वीकार करता है। उसमें मौलिक तत्व एक नहीं, किन्तु छह द्रव्यों को माना है। द्रव्य वह है जिसमें सत्ता गुण हो, और सत्ता स्वयं त्रिगुणात्मक है। इसके ये तीन गुण हैं - उत्पाद, व्यय और भ्रव्य । तात्पर्य यह है कि न तो वेदान्त में द्रव्यों की पूरी सत्ता का निरूपण पाया जाता है, और न चार्वाक दर्शन में । द्रव्यों में वेदान्त-सम्मत कूटस्थ नित्यता भी सिद्ध नहीं होती, और न बौद्ध सिद्धान्त की क्षण-ध्वंसता मात्र । संसार में चैतन्य-गुणयुक्त आत्म-तत्व भी है, और चैतन्यहीन मूर्तिमान, भौतिक पदार्थ तथा, अमतिक काल, आकाश आदि तत्व भी । ये सभी द्रव्य गुण-पर्यायात्मक हैं । अपनी गुणात्मक अवस्था के कारण उनमें ध्र वता है, तथा पर्यायात्मकता के कारण उनमें उत्पत्ति - विनाशरूप अवस्थाएं भी विद्यमान हैं । जैनधर्म के इस दार्शनिक तत्वज्ञान में ही उसकी व्यापक दृष्टि पाई जाती है, और इसी व्यापक दष्टि से वस्तुविचार के लिये उसने अपना स्याद्वाद व अनेकान्त रूप न्याय स्थापित किया है। इस न्याय को समझने के लिए हम अपने सामने रखी हुई इस टेबिल को ही ले लेते हैं । इसे हम चैतन्यहीन पाते हैं, इसीलिए इसे मात्र जड़ तत्व ही कह सकते हैं। जड़ तत्वों में यह अमूर्त नहीं, किन्तु मूर्तिमान है, इसीलिए इसे पुद्गल कह सकते हैं । पुद्गलों के नाना भेदों में से यह केवल काष्ठ की बनी है, इसीलिये इसे काठ कह सकते हैं, और काठ के बने आलमारी, कुर्सी बेंच, दरवाजे आदि नाना रूपों में से इसके अपने विशेष रूप के कारण हम इसे टेबिल कहते हैं। इस टेबिल में ऊंचाई, लम्बाई, चौड़ाई तथा रंग आदि की दृष्टि से अनेक ही नहीं, अनन्त गुण हैं। आपेक्षिक दृष्टि से देखने पर यही टेबिल हमें कभी छोटी और कभी बड़ी, कभी ऊंची और कभी नीची दिखाई देने लगती है। इस प्रकार जब कोई इसे उक्त द्रव्यात्मक, गुणात्मक या पर्यायात्मक नाम से कहता है, तब उसमें वास्तविकता की दृष्टि से हमें एकांश सत्य की झलक
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