Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन धर्म का उद्गम और विकास बर्मा प्रादि दूर देशों में जाकर भी उनके साहित्य का माध्यम वही पालि भाषा बनी रही, और वहां की लोक भाषायें जीती मरती हुई उस साहित्य में कोई स्थान प्राप्त न कर सकीं। जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर ने लोकोपकार की भावना से उस समय की सुबोध वाणी अर्द्धमागधी का उपयोग किया, तथा उनके गणधरों ने उसी भाषा में उनके उपदेशों का संकलन किया । उस भाषा और उस साहित्य की ओर जैनियों का सदैव आदर भाव रहा है; तथापि उनकी वह भावना कभी भी लोक भाषाओं के साथ न्याय करने में बाधक नहीं हुई । जैनाचार्य जब जब धर्म प्रचारार्थ जहां जहां गये, तब तब उन्होंने उन्हीं प्रदेशों में प्रचलित लोक-भाषाओं को अपनी साहित्य रचना का माध्यम बनाया। यही कारण है कि जैन साहित्य में ही भिन्न भिन्न प्रदेशों की भिन्न भिन्न कालीन शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रशं आदि प्राकृत भाषामों का पूरा पूरा प्रतिनिधित्व पाया जाता है। हिंदी, गुजराती आदि प्राधुनिक भाषाओं का प्राचीनतम साहित्य जैनियों का ही मिलता है। यही नहीं, किंतु दक्षिण की सुदूरवर्ती तामिल व कन्नड भाषाओं को प्राचीनकाल में साहित्य में उतारने का श्रेय संभवतः जैनियों को ही दिया जा सकता है। इस प्रकार जैनियों ने कभी भी किसी एक प्रांतीय भाषा का पक्षपात नहीं किया, किंतु सदैव देश भर की भाषाओं को समान आदरभाव से अपनाया है, और इस बात के लिये उनका विशाल साहित्य साक्षी है।
धार्मिक लोक मान्यताओं की भी जैनधर्म में उपेक्षा नहीं की गई, कित उनका सम्मान करते हुए उन्हें विधिवत् अपनी परम्परा में यथास्थान सम्मिलित कर लिया गया है । राम और लक्ष्मण तथा कृष्ण और बलदेव के प्रति जनता का पूज्य भाव रहा है व उन्हें अवतार-पुरुष माना गया है । जैनियों ने तीर्थंकरों के साथ साथ इन्हें भी त्रेसठ शलाका पुरुषों में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों में विस्तार से उनके जीवन-चरित्र का वर्णन किया है। जो लोग जैनपुराणों को हलकी और उथली दृष्टि से देखते हैं, वे इस बात पर हंसते हैं कि इन पुराणों में महापुरुषों को जैनमतावलम्बी, माना गया है, व कथाओं में व्यर्थ हेर फेर किये गये हैं। उनकी दष्टि इस बात पर नहीं जाती कि कितनी आत्मीयता से जैनियों ने उन्हें अपने भी पूज्य बना लिया है, और इस प्रकार अपने तथा अन्यधर्मी देश भाइयों की भावना की रक्षा की है। इतना ही नहीं, किंतु रावण व जरासंघ जैसे जिन अनार्य राजाओं को वैदिक परपंरा के पुराणों में कुछ घृणित भाव से चित्रित किया गया है, उनको भी जैन पुराणों में उच्चता और सम्मान का स्थान देकर अनार्य जातियों की भावनाओं को भी ठेस नहीं पहुंचने दी । इन नारायण केशत्रुओं को भी उन्होंने प्रतिनारायण का उच्चपद प्रदान
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