Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal

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Page 15
________________ जैन धर्म का उद्गम और विकास किंतु उसका उद्देश्य मात्र इतना ही है कि किसी धर्म- विषशे के लिये सब सुविधायें देना और दूसरे धर्मों की उपेक्षा करना, ऐसी राष्ट्र-नीति कदापि नहीं होना चाहिये । इसके विपरीत शासन का कर्तव्य होगा कि वह देश के प्राचीन इतिहास, साहित्य, सिद्धान्त व दर्शन आदि संबंधी सभी विषयों के अध्ययन व अनुसंधान के लिये जितनी हो सके उतनी सुविधायें समान दृष्टि से, निष्पक्षता के साथ, उपस्थित करे । इस उदात्त व श्रेयस्कर दृष्टिकोण से कभी किसी को कोई विरोध नहीं हो सकता। मैं समझता हूँ इसी धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण से प्रेरित होकर इस शासन परिषद् ने मुझे इन व्याख्यानों के लिये आमंत्रित किया है, और उसी दृष्टि से मुझे जैनधर्म का भारतीय संस्कृति को योगदान विषयक यहाँ विवेचन करने में कोई संकोच नही। ध्यान मुझे केवल यह रखना है कि इस विषय की यहाँ जो समीक्षा की जाय, उसमें आत्म-प्रशंसा व परनिंदा की भावना न हो, किंतु प्रयत्न यह रहे कि प्रस्तुत संस्कति की धारा ने भारतीय जीवन व विचार एवं व्यवस्थाओं को कब कैसा पुष्ट और परिष्कृत किया, इसका यथार्थ मूल्यांकन होकर उसकी वास्तविक रूपरेखा उपस्थित हो जाय । मुझे इस विषय में विशेष सतर्क रहने की इस लिये भी आवश्यकता है क्योंकि मैं स्वयं अपने जन्म व संस्कारों से जैन होने के कारण सरलता से उक्त दोष का भागी ठहराया जा सकता हूँ। किन्तु इस विषय में मेरा उक्त उत्तर-दायित्व इस कारण विशेष रूप से हलका हो जाता है, कि जैनधर्म अपनी विचार व जीवन सम्बन्धी व्यवस्थाओं के विकास में कभी किसी संकुचित दृष्टि का शिकार नहीं बना । उसकी भूमिका राष्ट्रीय दृष्टि से सदैव उदार और उदात्त रही है । उसका यदि कभी कहीं अन्य धर्मो से विरोध व संघर्ष हुआ है तो केवल इसी उदार नीति की रक्षा के लिये । जैनियों ने अपने देश के किसी एक भाग मात्र को कभी अपनी भक्ति का विषय नहीं बनने दिया । यदि उनके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर विदेह (उत्तर बिहार) में उत्पन्न हुए थे, तो उनका उपदेश व निर्वाण हुआ मगध (दक्षिण बिहार) में। उनसे पूर्व के तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म हुआ उत्तरप्रदेश की बनारस नगरी में; तो वे तपस्या करने गये मगध के सम्मेदशिखर पर्वत पर । उनसे भी पूर्व के तीर्थकर नेमिनाथ ने अपने तपश्चरण, उपदेश व निर्वाण का क्षेत्र बनाया भारत के पश्चिमी प्रदेश काठियावाड को । सब से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का जन्म हुआ अयोध्या में और वे तपस्या करने गये कैलाश पर्वत पर । इस प्रकार जैनियों की पवित्र भूमि का विस्तार उत्तर में हिमालय, पूर्व में मगध, और पश्चिम में काठियावाड तक हो गया इन सीमाओं के भीतर अनेक मुनियों व आचार्यों आदि महापुरुषों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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