Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal

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Page 16
________________ जैन धर्म की राष्ट्रीय भूमिका जन्म, तपश्चरण, निर्वाण आदि के निमित्त से उन्होंने देश की पद पद भूमि को अपनी श्रद्धा व भक्ति का विषय बना डाला है। चाहे धर्मप्रचार के लिये हो और चाहे आत्मरक्षा के लिये, जैनी कभी देश के बाहर नहीं भागे । यदि दुमिक्ष आदि विपत्तियों के समय वे कहीं गये तो देश के भीतर ही, जैसे पूर्व से पश्चिम को या उत्तर से दक्षिण को। और इस प्रकार उन्होंने दक्षिण भारत को भी अपनी इस श्रद्धांजली से भी वंचित नहीं रखा। वहां तामिल के सुदूरवर्ती प्रदेश में भी उनके अनेक बड़े बड़े प्राचार्य व ग्रन्थकार हुए हैं, और उनके स्थान उनके प्राचीन मंदिरों आदि के ध्वंसों से आज भी अलंकृत हैं। कर्नाटक प्रांत में श्रवणबेलगोला व कारकल आदि स्थानों पर बाहुबलि की विशाल कलापूर्ण मूर्तियाँ आज भी इस देश की प्राचीन कला को गौरवान्वित कर रही हैं । तात्पर्य यह कि समस्त भारत देश, प्राज की राजनैतिक दृष्टिमात्र से ही नहीं, किंतु अपनी प्राचीनतम धार्मिक परम्परानुसार भी, जैनियों के लिये एक इकाई और श्रद्धाभक्ति का भाजन बना है। जैनी इस बात का भी कोई दावा नहीं करते कि ऐतिहासिक काल के भीतर उनका कोई साधुओं या गृहस्थों का समुदाय बड़े पैमाने पर कहीं देश के बाहर गया हो और वहां उसने कोई ऐसे मंदिर प्रादि अपनी धार्मिक संस्थायें स्थापित की हों, जिनकी भक्ति के कारण उनके देशप्रेम में लेशमात्र भी शिथिलता या विभाजन उत्पन्न हो सके। इस प्रकार प्रान्तीयता की संकुचित भावना एवं देशबाह्य अनुचित अनुराग के दोषों से निष्कलंक रहते हुए जैनियों की देशभक्ति सदैव विशुद्ध, अचल और स्थिर कही जा सकती है। देशभक्ति केवल भूमिगत हो हो सो बात नहीं है । जैनियों ने लोकभावनाओं के संबंध में भी अपनी वही उदार नीति रखी है। भाषा के प्रश्न को ले लीजिये । वैदिक परम्परा में संस्कृत भाषा का बड़ा आदर रहा है, और उसे ही 'दैवी वाक' मानकर सदैव उसी में साहित्य-रचना की है। इस मान्यता का यह परिणाम तो अच्छा हुआ कि उसके द्वारा प्राचीनतम साहित्य वेदों आदि की भले प्रकार रक्षा हो गई तथा भाषा भी उत्तरोत्तर खूब मंजती गई । किन्तु इससे एक बड़ी हानि यह हई कि उस परम्परा के कोई दो तीन हजार वर्षों में उत्पन्न विशाल साहित्य के भीतर तात्कालिक भिन्न प्रदेशीय लोक-भाषाओं का कोई प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया। भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेश का माध्यम उस समय की एक लोक-भाषा मागधी को बनाया और अपने शिष्यों को यह आदेश भी दिया कि धर्म उपदेश के लिये लोकभाषाओं का ही उपयोग किया जाय । किन्तु बौद्ध परम्परा के साहित्यक उस आदेश का पूर्णतया पालन न कर सके । उन्हें एक पालि भाषा से ही मोह हो गया और वह इतना कि लंका, स्याम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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