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शुभाशंसा जैन धर्म के चारो सम्प्रदायो द्वारा मान्य 'भक्तामर स्तोत्र' आचार्य मानतुग सूरि का एक अद्वितीय एव चमत्कृत स्तोत्र है।
भक्ति का महत्त्व तो भक्त-हृदय ही समझ सकता है। अपने इष्टदेव के समक्ष हृदय खोलकर रख देने वाले भक्त-कवियो की परपरा की सूची बहुत लम्बी है। आश्चर्य की बात तो यह है कि उन भक्त-कवियो के हृदयस्थ भाव जो स्तवन और स्तोत्र रूपी झरने बनकर बह निकले उसमे आज भी साधारण जन उसी तन्मयता से बहने लगते हैं।
आचार्य मानतुग सूरि के इस स्तोत्र से अनेक भक्त-जीवात्माओ के अध्यात्ममार्ग प्रशस्त हुए हैं। इसका एक-एक शब्द, वाक्य और श्लोक मनस्ताप को दूर करता है। इसका प्रत्येक पदविन्यास गूढ मत्र रहस्यो से युक्त है। सभी श्लोक भिन्न-भिन्न मनोरथो को पूर्ण करते हैं। जैन धर्म मे, विशेषतः मूर्तिपूजक सम्प्रदाय मे अनेक स्तोत्र हैं, पर श्री भक्तामर स्तोत्र के समकक्ष किसी को नही रखा जा सकता।
विदुषी डॉ. साध्वी श्रीमुक्तिप्रभाजी की प्रेरणा से डा. साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी ने उनके जयपुर चातुर्मास मे इस महास्तोत्र को अपने प्रवचनो के द्वारा इसकी महिमा से जन-जन को लाभान्वित करने का स्तुत्य प्रयास किया था। यह और भी प्रसन्नता का विषय है कि अब वे प्रवचन ग्रन्थस्थ होकर स्तोत्र महिमा में और अभिवृद्धि करेंगे। प्रत्येक श्लोक का सूक्ष्म एवं सरल विवेचन प्रशसनीय है। निस्सदेह 'भक्तामर स्तोत्र : एक दिव्य दृष्टि' से भव्यात्माओ को दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी। विजय इन्द्रदिन्नसूरि का धर्मलाभ (आचार्य विजय इन्द्रदिन्न सूरिजी महाराज) १९-१०-९१ जयपुर