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यद्यपि भक्तामर जैसे महान स्तोत्र पर दिये गये प्रवचनो का सम्पादन मेरी जैसी अल्पज्ञा साध्वी के लिये विकट अवश्य था, परन्तु परम गुरुवर्या साध्वी रल डॉ० मक्तिप्रभाजी म0 सा0 की पावन प्रेरणा भरे आशीर्वाद से यह कार्य सहज हो गया। इस प्रकार इस ग्रन्थ की जन्मभूमि जयपुर है। _ऐसे तो इस स्तोत्र के साथ एक इतिहास ही जुड़ा हुआ है। अनभिव्यक्त ऐसी एक वास्तविकता से आज आपको अनुभूत कराने को मैं अपना कर्तव्य समझती हूँ। आप यह तो जानते हैं कि साध्वी दर्शनप्रभाजी और साध्वी डॉ0 दिव्यप्रभाजी की मैं अनुजा हूँ। इनके प्रगतिमान कदम मेरे जीवन के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। साध्वी डॉ० दिव्यप्रभाजी बचपन से ही भक्त हृदया के साथ वैराग्यवासित भी रही हैं। इनके जन्म के समय में पिताश्री चीमनभाई को इनके दीक्षा लेने का भी संकेत मिल चुका था। ___ अब देखिये, भक्तामर स्तोत्र का इनके जीवन के साथ कैसे सम्बन्ध हुआ। बाल्यकाल से ही स्तोत्र की प्रेरणा कैसे मिलती रही। दादाजी के यह कहने पर कि जो भी पहले भक्तामर कण्ठाग्र करेगा उसे चाँदी की डिब्बी और चाँदी की माला दी जाएगी। तब पूरे परिवार के करीब १०-१२ बच्चों में इन्होंने सर्वप्रथम मात्र ५ दिन में ही स्तोत्र याद कर लिया था। तब इनकी आयु ७ वर्ष करीब थी। जहाँ तक मुझे याद है, ये अस्खलित स्तोत्र पाठ करती थीं। मेरे ससारी पिताजी ही इनके भक्तामर स्तोत्र के प्रथम गुरु रहे हैं। ९ वर्ष की उम्र में इन्होंने अपने पिताजी से स्तोत्र के सामान्य अर्थ सीखे थे। उस समय से प्रतिदिन इसके सम्बन्ध में कई जिज्ञासापूर्ण प्रश्नों को पूछती रहती थी, जिनका आज वे स्वय बहुत अच्छा समाधान देती हैं। . इसके बाद करीब ई0 सन् १९६९ में आपको महान विभूति आत्मार्थी पूज्य गुरुदेव मोहनऋषिजी म0 सा0, आगम रत्नाकर पूज्य विनयऋषिजी म0 सा0 और परम गुरुवर्या अनुग्रहपूर्णा साध्वी रल उज्ज्वलकुमारी जी म0 सा0 के सान्निध्य मे चातुर्मास का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस अवसर पर आत्मार्थी पूज्य गुरुदेव द्वारा स्तोत्र की साधना के अभ्यास की और परम गुरुवर्या द्वारा इसके वैज्ञानिक अनुसधान की प्रेरणा मिली। इन प्ररणाओं में अपना पथ दर्शन करती हुई आप अपने अध्ययन क्षेत्र में आगे बढ़ी। ई० सन् १९७५ में आपने 'अरिहत' का अनुसधान प्रारभ किया। लोगो की दृष्टि में जो महानिबध था, वह आपके जीवन का साधनामय अभ्युत्थान रहा। कई बार इस खोज में जब आपका काम अटकता था तब आपको अज्ञात प्रेरणा मिलती रहती थी। इससे मनोबल और श्रद्धाबल बराबर दृढ़ होते गये। ई० सन १९८० में बालकेश्वर में "आरेहत नी आलखाण" विषय पर आपके बड़े मार्मिक १७ प्रवचन हुए थे। इसी वर्ष “दार्शनिक और पज्ञानिक परिवेश मे "चत्तारि सरण पव्वज्जामि" के विषय से मागलिक पर भी आपके कुछ प्रेरणास्पद प्रवचन होते रहे। पाचोरा चातुर्मास के पूर्व हम पारोला नामक एक गाँव में यावहाँ एक बार आपको भक्तामर स्तोत्र का पाठ करते समय गाथा ३६ का भाव-पूर्वक