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चारित्रपाहुड ]
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वात्सल्यं विनयेन च अनुकंपया सुदान दक्षया । मार्गगुणशंसनथा उपगूहनं रक्षणेन
च ।। ११ ।।
एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आर्जवैः भावैः । जीव: आराधयन् जिनसम्यक्त्वं अमोहेन ।। १२ ।।
अर्थः-- जिनदेवकी श्रद्धा- सम्यक्त्वकी मोह अर्थात् मिथ्यात्व रहित आराधना करता हुआ जीव इन लक्षणोंसे अर्थात् चिन्होंसे पहिचाना जाता है- प्रथम तो धर्मात्मा पुरुषोंसे जिसके वात्सल्यभाव हो, जैसे तत्कालकी प्रसूतिवान गाय को बच्चे से प्रीति होती है वैसे धर्मात्मा से प्रीति हो, एक तो यह चिन्ह है । सम्यक्त्वादि गुणोंसे अधिक हो उसका विनय - सत्कारादिक जिसके अधिक हो, ऐसा विनय एक यह चिन्ह है। दुःखी प्राणी देखकर करुणाभाव स्वरूप अनुकंपा जिसके हो, एक यह चिन्ह है, अनुकंपा कैसी हो ? भले प्रकार दान से योग्य हो । निर्ग्रन्थस्वरूप मोक्षमार्ग की प्रशंसा सहित हो, एक यह चिन्ह है, जो मार्ग की प्रशंसा नहीं करता हो तो जानो कि इसके मार्ग की दृढ़ श्रद्धा नहीं है। धर्मात्मा पुरुषों के कर्मके उदयसे [ उदयवश ] दोष उत्पन्न हो उसको विख्यात न करे इसप्रकार उपगूहन भाव हो, एक यह चिन्ह है। धर्मात्मा को मार्ग से चिगता जानकर उसकी स्थिरता करे ऐसा रक्षण नामका चिन्ह है इसको स्थितिकरण भी कहते हैं। इन सब चिन्होंको सत्यार्थ करनेवाला एक आर्जवभाव है, क्योंकि निष्कपट परिणामसे यह सब चिन्ह प्रगट होते हैं, सत्यार्थ होते हैं, इतने लक्षणोंसे सम्यग्दृष्टि को जान सकते हैं।
भावार्थः—–सम्यक्त्वभाव - मिथ्यात्व कर्मके अभावमें जीवोंका निजभाव प्रगट होता है सो वह भाव तो सूक्ष्म है, छद्मस्थ के ज्ञानगोचर नहीं है और उसके बाह्य चिन्ह सम्यग्दृष्टि के प्रगट होते हैं, उनसे सम्यक्त्व हुआ जाना जाता है । जो वात्सल्य आदि भाव कहें वे आपके तो अपने अनुभवगोचर होते हैं और अन्य के उसकी वचन काय की क्रिया से जाने जाते है, उनकी परीक्षा जैसे अपने क्रियाविशेष से होती है वैसे ही अन्य की भी क्रिया विशेष से परीक्षा होती है, इसप्रकार व्यवहार है। यदि ऐसा न हो तो सम्यक्त्व व्यवहार मार्गका लोप हो इसलिये व्यवहारी प्राणीको व्यवहारका ही आश्रय कहा है, परमार्थको सर्वज्ञ जानता है । । ११-१२ ।।
वात्सल्य-विनय थकी, सुदाने दक्ष अनुकंपा थकी,,
वळी मार्गगुणस्तवना थकी, उपगूहन ने स्थितिकरणथी। ११।
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- आ लक्षणोथी तेम आर्जवभावथी लक्षाय छे. वणमोह जिनसम्यक्त्वने आराधनारो जीव जे । १२ ।
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