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[ अष्टपाहुड आगे कहते हैं कि हे आत्मन्! तूने इस दीर्घसंसार में पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयकी प्राप्ति बिना भ्रमण किया, इसलिये अब रत्नत्रय धारण कर:--
रयणत्तये अलद्धे एवं भमिओ सि दीहसंसारे। इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तय समायरह।।३०।।
रत्नत्रये अलब्धे एवं भ्रमितोऽसि दीर्घसंसारे। इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर।।३०।।
अर्थ:--हे जीव ! तूने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय को नहीं पाया, इसलिये इस दीर्घकालसे - अनादि संसारमें पहिले कहे अनुसार भ्रमण किया, इसप्रकार जानकर अब तू उस रत्नत्रयका आचरण कर, इसप्रकार जिनेश्वरदेव ने कहा है।
भावार्थ:--निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मिथ्यात्वके उदयसे संसार में भ्रमण करता है, इसलिये रत्नत्रय के आचरणका उपदेश है।। ३०।।
आगे शिष्य पूछता है कि वह रत्नत्रय कैसा है ? उसका समाधान करते हैं कि रत्नत्रय इसप्रकार है:--
अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्त मग्गो त्ति।।३१।।
आत्मा आत्मनि रतः सम्यग्दृष्टि: भवति स्फुटं जीवः। जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति।। ३१ ।।
अर्थ:--जो आत्मा आत्मा में रत होकर यथार्थरूपका अनुभव कर तद्रुप होकर श्रद्धान करे वह प्रगट सम्यग्दृष्टि होता है, उस आत्माको जानना सम्यग्ज्ञान है,
वण रत्नत्रयप्राप्ति तुं ओ रीत दीर्घसंसारे भम्यो, भाख्यं जिनोओ आम; तेथी रत्नत्रयने आचरो। ३० ।
निज आद्गमां रत क्वव जे ते प्रगट सम्यग्दृष्टि छे, तबोध छ सुज्ञान, त्यां चरवं चरण छ; -मार्ग ओ। ३१ ।
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