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भावपाहुड
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परम्परा से तीर्थंकरपद पाकर मोक्ष पाता है, यह उपदेश है।। १३६ ।।
आगे यह जीव षट् अनायतन के प्रसंगसे मिथ्यात्वसे संसार में भ्रमण करता है उसका स्वरूप कहते हैं। पहिले मिथ्तात्व के भेदोंको कहते है:---
असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तट्ठी अण्णाणी वेणइया होति बत्तीसा।।१३७।।
अशीविशतं क्रियावादिनामक्रियमाणं च भवति चतुरशीतिः। सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवति द्वात्रिशत्।।१३७ ।।
अर्थ:---एकसौ अस्सी क्रियावादी हैं, चौरासी अक्रियावादियों के भेद हैं, अज्ञानी सड़सठ भेदरूप हैं और विनयवादी बत्तीस हैं।
भावार्थ:--वस्तु का स्वरूप अनन्तधर्मस्वरूप सर्वज्ञ ने कहा है, वह प्रमाण और नयसे सत्यार्थ सिद्ध होता है। जिनके मत में सर्वज्ञ नहीं हैं तथा सर्वज्ञसे स्वरूपका यथार्थ रूपसे निश्चय करके उसका श्रद्धान नहीं किया है--ऐसे अन्यवादियोंने वस्तुका एक धर्म ग्रहण करके उसका पक्षपात किया कि हमने इसप्रकार माना है, वह 'ऐसे ही है, अन्य प्रकार नहीं है।' इसप्रकार विधि-निषेध करके एक-एक धर्मके पक्षपाती हो गये, उनके ये संक्षेप से तीनसौ त्रेसठ भेद हो गये हैं।
क्रियावादी:--कई तो गमन करना, बैठना, खड़े रहना, खाना, पीना, सोना, उत्पन्न होना, नष्ट होना, देखना, जानना, करना, भोगना, भूलना, याद करना, प्रीति करना, हर्ष करना , विषाद करना, द्वेष करना, जीना, मरना इत्यादिक क्रियायें हैं; इनको जीवादिक पदार्थों के देख कर किसी ने किसी क्रियाका पक्ष किया है और किसी ने किसी क्रिया का पक्ष किया है। ऐसे परम्परा क्रियाविवाद से भेद हुए हैं, इनके संक्षेप एकसौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं. विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं।
कई अक्रियावादी हैं, ये जीवादिक पदार्थों में क्रिया का अभाव मानकर आपसमें
शत-अॅशी किरिवादीना, चोराशी तेथी विपक्षना, बत्रीश सडसठ भेद छ वैनयिक ने अज्ञानीना। १३७ ।
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