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। अष्टपाहुड
दंसणणाणचरित्ते तवसंजमणियमणिच्चकम्मम्मि। पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं।।११।।
दर्शनज्ञानचारित्रेषु तपः संयमनियम नित्यकर्मसु। पीडयते वर्तमानः प्राप्नोति लिंगी नरकवासम्।।११।।
अर्थ:--जो लिंग धारण करके इन क्रियाओंको करता हुआ बाध्यमान होकर पीड़ा पाता है, दुःखी होता है वह लिंगी नरकवासी को पाता है। वे क्रियायें क्या है ? प्रथम तो दर्शन ज्ञान चारित्र में इनका निश्चय-व्यवहाररूप धारण करना, तप-अनशनादिक बारह प्रकारके शक्तिके अनुसार करना, संयम-इन्द्रियोंको और मन को वश में करना तथा जीवों की रक्षा करना, नियम अर्थात नित्य कुछ त्याग करना और नित्यकर्म अर्थात आवश्यक आदि क्रियाओंको नित्य समय पर नित्य करना, ये लिंगके योग्य क्रियायें हैं, इन क्रियाओंको करता हुआ दुःखी होता है वह नरक पाता है। ['आत्म हित हेतु विराग-ज्ञान सो लखै आपको कष्टदान' मुनिपद अर्थात् मोक्षमार्ग उसको तो वह कष्टदाता मानता है अतः वह मिथ्यारुचिवान है]
भावार्थ:--लिंग धारण करके ये कार्य करने थे, इनका तो निरादर करे ओर प्रमाद सेवे, लिंगके योग्य कार्य करता हुआ दुःखी हो, तब जानो कि इसके भावशुद्धिपूर्वक लिंग ग्रहण नहीं हुआ और भाव बिगड़ने पर तो उसका फल नरक ही होता है, इसप्रकार जा
आगे कहते हैं कि जो भोजनमें भी रसोंका लोलुपी होता है वह भी लिंगको लजाता
है:---
कंदप्पाइय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं । मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।१२।।
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दग ज्ञान चरण, नित्यकर्मे, तपनियमसंयम विषे, जे वर्ततो पीडा करे, लिंगी नरकगामी बने। ११ ।
जे भोजने रसगद्धि करतो वर्ततो कामादिके, मायावी लिंग विनाशी ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छ। १२ ।
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