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शीलपाहुड]
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कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्थाइं। शीलवदणाण रहिदा ण हु ते आराधया होति।।१४।।
कुमतकुश्रुतप्रशंसकाः जानंतो बहुविधानि शास्त्राणि। शीलव्रतज्ञानरहिता न स्फुटं ते आराधका भवंति।।१४।।
अर्थ:--जो बहुत प्रकारके शास्त्रों को जानते हैं और कुमत कुशास्त्रकी प्रशंसा करने वाले हैं वे शीलव्रत और ज्ञान रहित हैं वे इनके आराधक नहीं हैं।
माया
भावार्थ:--हो बहत शास्त्रों को जानकर ज्ञान को बहत जानते हैं और कमत कशास्त्रों की प्रशंसा करते हैं तो जानो की इनके कुमत से और कुशास्त्र से राग है-प्रीति है तब उनकी प्रशंसा करते हैं--ये तो मिथ्यात्व के चिन्ह हैं, जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ ज्ञान भी मिथ्या है और विषय-कषायों से रहित होने को शील कहते हैं वह भी उनके नहीं है, व्रत भी उनके नहीं है, कदाचित् कोई व्रताचरण करते हैं तो भी मिथ्याचारित्ररूप है, इसलिये दर्शन-ज्ञान-चारित्र के आराधने वाले नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं।। १४ ।।
आगे कहते हैं कि यदि रूप सुन्दरादिक सामग्री प्राप्त करे और शील रहित हो तो उसका मनुष्य जन्म निरर्थक है:---
रुवसिरिगव्विदाणं जुव्वणलावण्णकतिकलिदाणं। सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्थयं माणुसं जम्म।।१५।।
रुपश्रीगर्वितानां यौवनलावण्यकांतिकलितानाम्। शील गुणवर्जितानां निरर्थकं मानुषं जन्म।। १५ ।।
अर्थ:--जो पुरुष यौवन अवस्था सहित हैं और बहुतों को प्रिय लगते हैं ऐसे लावण्य सहित हैं. शरीर की कांति-प्रभा से मंडित हैं और सन्दर रूप लक्ष्मी संपदा से मदोन्मत्त हैं , परन्तु वे यदि शील और गुणों से रहित हैं तो उनका मनुष्य जनम निरर्थक है।
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दुर्मत-कुशास्त्र प्रशंसको जाणे विविध शास्त्रो भले, व्रत-शील-ज्ञानविहीन छे तेथी न आराधक खरे। १४ ।
हो रूपश्री गर्वित, भले लावण्य यौवन कान्ति हो, मानव जन्म छे निष्प्रयोजन शीलगुणवर्जित तणो। १५ ।
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