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अष्टपाहुड ही जाने, जैसे सुनार आदि कारीगर आभूषणादिक की संधि के टाँका ऐसा झाले कि वह संधि अदृष्ट हो जाय, तब उस संधि को टाँके का झालने वाला ही पहिचान कर खोले आत्माने अपने ही रागादिक भावों से कर्मों की गाँठ बांधी है उसको आप ही भेदविज्ञान करके रागादिकके और आपके जो भेद हैं उस संधि को पहिचान कर तप संयम शीलरूप भावरूप शस्त्रों के द्वारा कर्म बंध को काटता है, ऐसा जानकर जो कृतार्थ पुरुष है वे अपने प्रयोजन के करनेवाले हैं, वे इस शीलगुणको अंगीकार करके आत्मा को कर्म से भिन्न करते हैं, यह परुषार्थ पुरुषों का कार्य है।। २७।।
आगे जो शील के द्वारा आत्मा शोभा पाता है उसको दृष्टांत द्वारा दिखाते है:--
उदधी व रदणभरिदो तवविणयंसीलदाणरयणाणं। सोहेंतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो।। २८ ।।
उदधिरिव रत्नभृतः तपोविनयशीलदानरत्नानाम्। शोभते च सशीलः निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः।। २८ ।।
अर्थ:--जैसे समुद्र रत्नों से भरा है तो भी जलसहित शोभा पाता है, वैसे ही यह आत्मा तप विनय शीलवान इन रत्नोंमें शीलसहित शोभा पाता है, क्योंकि जो शील सहित हुआ उसने अनुत्तर अर्थात् जिससे आगे और नहीं है ऐसे निर्वाणपद को प्राप्त किया।
भावार्थ:--जैसे समुद्र में रत्न बहुत हैं तो भी जल ही से 'समुद्र' नामको प्राप्त करता है, वैसे ही आत्मा अन्य गुणसहित हो तो भी शीलसे ही निर्वाणपद को प्राप्त करता है, ऐसा जानना।। २८ ।।
आगे जो शीलवान पुरुष हैं वे ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं यह प्रसिद्ध करके दिखाते हैं:
सुणहाण गद्दहाण य गोवसुमहिलाण दीसदे मोक्खो। जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं।। २९ ।।
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तप-दान-शील-सुविनय-रत्नसमूह सह जलधि समो, सोहंत जीव सशील पामे श्रेष्ठ शिवपदने अहो! २८ ।
देखाय छे शं मोक्ष स्त्री-पशु-गाय-गर्दभ-श्वाननो ? जे तुर्यने साधे लहे छे मोक्ष, देखे सौ जनो। २९ ।
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