Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 412
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २८८] [ अष्टपाहुड ज्ञानं ध्यानं योगः दर्शन शुद्धिश्च वीर्यायत्ताः। सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधिं ।। ३७।। अर्थ:--ज्ञान. ध्यान. योग. दर्शन की शुद्धता ये तो वीर्य के आधीन हैं और सम्यग्दर्शन से जिनशासन में बोधि को प्राप्त करते हैं. रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है। भावार्थ:--ज्ञान अर्थात् पदाथो को विशेषरूप से जानना, ध्यान अर्थात् ‘स्वरूप में' एकाग्रचित्त होना, योग अर्थात् समाधि लगाना, सम्यग्दर्शन को निरतिचार शुद्ध करना ये तो अपने वीर्य [ शक्ति ] के आधीन है, जिना बने उतना हो परन्तु सम्यग्दर्शन से बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति होती है, इसके होने पर विशेष ध्यानादिक भी यथाशक्ति होते ही हैं और इससे शक्ति भी बढ़ती है। ऐसे कहने में भी शील ही का महात्म्य जानना, रत्नत्रय है वही आत्मा का स्वभाव है, उसको शील भी कहते हैं।।३७ ।।। आगे कहते हैं कि यह प्राप्ति जिनवचन से होती है:--- जिणवचणगहिदसारा विसयविरत्ता तावोधणा धीरा। सील सलिलेण ण्हादा ते सिद्धालय सुहं जंति।।३८।। जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधना धीराः। शील सलिलेन स्नाताः ते सिद्धालय सुखं यांति।।३८ ।। अर्थ:--जिनने जिनवचनों से सार को ग्रहण कर लिया और विषयों से विरक्त हो गये हैं, जिनके तप ही धन है तथा धीर हैं ऐसे होकर मुनि शीलरूप जलसे स्नानकर शुद्ध हुए हैं वे सिद्धालय जो सिद्धोंके रहने का स्थान है उसके सुखों को प्राप्त होते हैं। भावार्थ:--जो जिनवचन के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसका सार जो अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति उसका ग्रहण करते हैं वे इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर तप अंगीकार करते हैं---मुनि होते हैं, धीर वीर बन कर परिषह उपर्सग आने पर भी चलायमान नहीं होते है तब शील जो स्वरूप की प्राप्ति की पूर्णतारूप चौरासी लाख उत्तरगुण की पूर्णता वही हुआ निर्मल जल उससे स्नान करके सब कर्ममल को धोकर सिद्ध हुए, वह मोक्ष मंदिरमें रहकर वहाँ परमानन्द अविनाशी अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख को भोगते हैं, यह शीलका महात्म्य है। ऐसा शील जिनवचन --------------------------------------------------------------------- जिनवचननो ग्रही सार, विषयविरक्त धीर तपोधनो, करी स्नान शीलसलिलथी, सुख सिद्धिनुं पामे अहो! ३८ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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