Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 414
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३९०] [अष्टपाहुड आगे ग्रंथको पूर्ण करते हैं वहाँ ऐसे कहते हैं कि ज्ञान से सर्व सिद्धि है यह सर्वजन प्रसिद्ध है, वह ज्ञान तो ऐसा हो उसको कहते हैं:--- अरहन्ते सुहभत्ती सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्धं । सीलं विसयविरागो णाणं पुणकेरिसं भणिय।। ४०।। अर्हति शुभभक्तिः सम्यक्त्वं दर्शनेन सुविशुद्ध । शीलं विषयविरागः ज्ञानं पुनः कीदृशं भणितं।। ४० ।। अर्थ:--अरहंतों में शुभ भक्ति का होना सम्यक्त्व है, वह कैसा है ? सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है तत्त्वार्थों का निश्चय-व्यवहारस्वरूप श्रद्धान और बाह्य जिनमुद्रा नग्न दिगम्बररूप का धारण तथा उसका श्रद्धान ऐसा दर्शन से विशुद्ध अतीचार रहित निर्मल है ऐसा तो अरहंत भक्तिरूप सम्यक्त्व है, विषयों से विरक्त होना शील है और ज्ञान भी यही है तथा इससे भिन्न ज्ञान कैसा कहा है ? सम्यक्त्व शील बिना तो ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप अज्ञान है। भावार्थ:--यह सब मतों में प्रसिद्ध है कि ज्ञान से सर्वसिद्धि है और ज्ञान शास्त्रों से होता है। आचार्य कहते हैं कि---हम तो ज्ञान उसको कहते हैं जो सम्यक्त्व और शील सहित हो, ऐसा जिन मार्ग में कहा है, इससे भिन्न ज्ञान कैसा है ? इससे भिन्न ज्ञान को तो हम ज्ञान नहीं कहते हैं, इनके बिना तो वह अज्ञान ही है और सम्यक्त्व व शील हो वह जिनागम से होते हैं। वहाँ जिसके द्वारा सम्यक्त्व शील हुए और उसकी भक्ति न हो तो सम्यक्त्व कैसे कहा जावे, जिके वचन द्वारा यह प्राप्त किया जाता है उसकी भक्ति हो तब जाने कि इसके श्रद्धा हई और जब सम्यक्त्व हो तब विषयों से विरक्त होय ही विरक्त न हो तो संसार और मोक्ष का स्वरूप क्या जाना ? इसप्रकार सम्यक्त्व शील के संबंध से ज्ञान की तथा शास्त्र की महिमा है। ऐसे यह जिनागम है सो संसार में निवृत्ति करके मोक्ष प्राप्त कराने वाला है, वह जयवंत हो। यह सम्यक्त्व सहित ज्ञान की महिमा है वही अंतमंगल जानना।। ४०।। इसप्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत शीलपाहुड ग्रंथ समाप्त हुआ। अर्हतमां शुभ भक्ति श्रद्धा शुद्धियुत सम्यक्त्व छे, ने शील विषय विरागता छे; ज्ञान बीजं कयुं हवे ? ४०। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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