Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 399
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शीलपाहुड [३७५ सीलगुणमंडिदाणं देवा भवियाण वल्लहा होति। सुदपारयपउरा णं दुस्सीला अप्पिला लोए।।१७।। शीलगुणमंडितानां देवा भव्यानां वल्लभा भवंति। श्रुतपारग प्रचुराः णं दुःशीला अल्पकाः लोके ।।१७।। अर्थ:-- जो भव्य प्राणी शील और सम्यग्दर्शन गुण अथवा शील वही गुण उससे मंडित हैं उनका देव भी वल्लभ होता है, उनकी सेवा करने वाले सहायक होते हैं। जो श्रुतपारग अर्थात् शास्त्र के पार पहुँचे हैं, ग्यारह अंग तक पढ़े हैं ऐसे बहुत हैं और उनमें कई शीलगुण से रहित हैं, दुःशील हैं, विषय-कषायों में असक्त हैं तो वे लोक में 'अल्पका' अर्थात् न्यून हैं, वे मनुष्यों के भी प्रिय नहीं होते हैं तब देव कहाँ से सहायक हों ? भावार्थ:--शास्त्र बहुत जाने और विषयासक्त हो तो उसका कोई सहायक न हो, चोर और अन्यायकी लोकमें कोई सहायता नहीं करता है, परन्तु शीलगुण से मंडित हो और ज्ञान थोड़ा भी हो तो उसके उपकारी सहायक देव भी होते हैं तब मनुष्य तो सहायक होते ही हैं। शील गुणवाला सबका प्यारा होता है।। १७।। आगे कहते हैं कि जिने शील है--सुशील हैं उनका मनुष्य भव में जीना सफल है अच्छा है:--- सव्वे वि य परिहीणा रुपविरुवा वि पडिदसुवया वि। सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसं तेसिं।।१८।। सर्वेऽपि च परिहीनाः रुपविरुपा अपि पतित सुवयसोऽपि। शीलं येषु सुशीलं सुजीविदं मानुष्यं तेषाम्।।१८।। अर्थ:--जो सब प्राणियों में हीन है, कुलादिक से न्यून है और रूप से विरूप है सुन्दर नहीं है, 'पतितसुवयसः' अर्थात् अवस्था से सुन्दर नहीं है, वृद्ध हो गये हैं, रे! शीलगुणमंडित भविकना देव वल्लभ होय छे; लोके कुशील जनो, भले श्रुतपारगत हो, तुच्छ छ। १७ । सौथी भले हो हीन, रूपविरूप, यौवनभ्रष्ट हो, मानुष्य तेनुं छे सुजीवित, शील जेनुं सुशील हो। १८ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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