Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

Previous | Next

Page 395
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शीलपाहुड [३७१ ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन। भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां चारित्रशुद्धानाम्।।११।। अर्थ:--ज्ञान दर्शन तप इनका सम्यक्त्वभाव सहित आचरण हो तब चारित्र से शुद्ध जीवोंको निर्वाण की प्राप्ति होती है। भावार्थ:--सम्यक्त्वसहित ज्ञान दर्शन तप का आचरण करे तब चारित्र शुद्ध हो कर राग-द्वेषभाव मिट जावे तब निर्वाण पाता है, यह मार्ग है।। ११।। [तप-शुद्धोपयोगरूप मुनिपना, यह हो तो २२ प्रकार व्यवहार के भेद हैं।] आगे इसी को शील की मुख्यता द्वारा नियम से निर्वाण कहते हैं:--- सीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण दिढचरित्ताणं। अत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्त चित्ताणं।।१२।। शीलं रक्षतां दर्शनशुद्धानां दृढचारित्राणाम्। अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम्।।१२।।। अर्थ:--जिन पुरुषों का चित्त विषयों से विरक्त है, शील की रक्षा करते हैं, दर्शन से शुद्ध हैं और जिनका चारित्र दृढ़ है ऐसे पुरुषों को ध्रुव अर्थात् निश्चयसे-नियमसे निर्वाण होता भावार्थ:--विषयों से विरक्त होना ही शील की रक्षा है, इसप्रकार से जो शील की रक्षा करते हैं उनही के सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है और चारित्र अतिचार रहित शुद्ध-दृढ़ होता है, --- ऐसे पुरुषोंको नियम से निर्वाण होता है। जो विषयों में आसक्त है, उनके शील बिगड़ता है तब दर्शन शुद्ध न होकर चारित्र शिथिल हो जाता है, तब निर्वाण भी नहीं होता है, इसप्रकार निर्वाण मार्ग में शील ही प्रधान है।। १२ ।। आगे कहते हैं कि कदाचित् कोई विरक्त न हुआ और ‘मार्ग' विषयों से विरक्त होने रूप ही कहता है, उसको मार्ग की प्राप्ति होती भी है परन्तु जो विषय सेवन को ही 'मार्ग' कहता है तो उसका ज्ञान भी निरर्थक है:--- जे शीलने रक्षे, सुदर्शन शुद्ध दृढ चारित्र जे, जे विषयमांही विरक्तमन, निश्चित लहे निवार्णने। १२ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418