Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 379
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates लिंगपाहुड] ३५५ कंदादिषु वर्तते कुवार्ण: भोजनेषु रसगृद्धिम्। मायावी लिंगव्यवायी तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः।। १२ ।। अर्थ:--जो लिहग धारण करके भोजन में भी रस की गृद्धि अर्थात् आसक्तता को करता रहता है वह कंदर्प आदिकमें वर्तता है, उसके काम-सेवनकी वांछा तथा प्रमाद निद्रादिक प्रचुर मात्रा में बढ़ जाते हैं तब ‘लिंगव्यवायी' अर्थात् व्यभिचारी होता है, मायावी अर्थात् कामसेवन के लिये अनेक छल करना विचारता है, जो ऐसा होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशुतुल्य है, मनुष्य नहीं है, इसलिये श्रमण भी नहीं है। भावार्थ:--गृहस्थपद छोड़कर आहार में लोलुपता करने लगा तो गृहस्थपद में अनेक रसीले भोजन मिलते थे, उनको क्यों छोड़े ? इसलिये ज्ञात होता है कि आत्मभावना के रस को पहिचाना ही नहीं है इसलिये विषयसुख की चाह रही तब भोजन के रसकी, साथके अन्य भी विषयों की चाह होती है तब व्यभिचार आदि में प्रवर्तन कर लिंग को लजाता है, ऐसे लिंग से तो गृहस्थपद ही श्रेष्ठ है, ऐसे जानना।। १२ ।। आगे फिर इसी को विशेषरूप से कहते हैं:--- धावदि पिंडणिमित्तं कलह काउण भुञ्जदे पिंडं। अवरपरुई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो।।१३।। धावति पिंडनिमित्तं कलहं कृत्वा भुंक्ते पिंडम्। अपरप्ररुपी सन् जिनमार्गी न भवति सः श्रमणः ।। १३।। अर्थ:--जो लिंगधारी पिंड अर्थात् आहारके निमित्त दौडा है, आहारके निमित्त कलह करके आहारको भोगता है, खाता है, और उसके निमित्त अन्यसे परस्पर ईर्षा करता है वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है। भावार्थ:--इस काल में जिनलिंगी से भ्रष्ट होकर पहिले अर्द्धफालक हुए, पीछे उनमें श्वेताम्बरादि संघ हुए, उन्होंने शिथिलाचार पुष्ट कर लिंग की प्रवृत्ति बिगाड़ी, उनका यह निषेध है। इनमें अब भी कई ऐसे देखे जाते हैं जो---आहारके लिये शीघ्र दौड़ते हैं, ईर्यापथकी सुध नहीं है और आहार गृहस्थके घर से लाकर दो-चार शामिल पिंडार्थ जे दोडे अने करी कलह भोजन जे करे, ईर्षा करे जे अन्यनी, जिनमार्गनो नहि श्रमण ते। १३ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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